रिपोर्ट – अरुण यादव
वृंदावन। श्रीधाम वृंदावन की जिस पावन भूमि पर भगवान श्रीकृष्ण के चरण पड़े थे। उस भूमि की रज को भक्तजन चंदन मानकर अपने माथे पर धारण करते हैं। प्राचीन मान्यता के अनुसार करीब ढाई सौ वर्ष पूर्व से रसिक समाज में वृंदावनी रज को गोपी चंदन के रूप में माना जाता है। जिसका उल्लेख वृंदावन के रसिक हित हरिवंश महाप्रभु स्वामी हरिदास एवं संत स्वामी हरिराम व्यास के काव्य में भी मिलता है।
यह भी बताया जाता है कि श्री हित हरिवंश महाप्रभु द्वारा विक्रम संवत 1600 देववन निवासी शिष्य विट्ठल दास को पत्र लिखकर श्याम वंदिनी विहार चंदन यानी गोपी चंदन धारण करने को कहा था। राधावल्लभ संप्रदाय के गोस्वामी चंद्रलाल की रचना वृंदावन प्रकाश माला में भी गोपी चंदन का उल्लेख है। ग्रंथ में रमणरेती मार्ग स्थित मदन टेर में विहार चंदन की खान को गोपी टीला स्थली के रूप में जाना जाता है।
इसी के आधार पर विहार चंदन बाद में गोपी चंदन के नाम से विख्यात हुआ। इन्हीं मान्यताओं के आधार पर आज भी विश्वभर में वैष्णव साधकों के माथे पर वृंदावन की पावन रज गोपी चंदन के रूप में देखी जा सकती है। इस चंदन के निर्माण के लिए खान से रज निकालकर उसमें केसर, इत्र व रंगों का मिश्रण किया जाता है, जिसे गोपी चंदन कहते हैं। यह गोपी चंदन बनाने का काम जहां धार्मिक नगरी में कुटीर उद्योग का रूप ले चुका है। वहीं इस चंदन की बिक्री नगर के मंदिरों के साथ-साथ प्रमुख बाजारों की दुकानों पर खूब देखी जा सकती है। गोपी चंदन की खरीदारी स्थानीय ही नहीं बल्कि देश-विदेश से आने वाले श्रद्धालु करते हैं तथा अमेरिका रूस इंग्लैंड नेपाल जापान मलेशिया कनाडा के अलावा अन्य कई देशों से आॅर्डर पर भी मंगवाते हैं।