रिपोर्ट:- विजय कुमार गुप्ता
मथुरा। सीख दीजिए ताकू जाकू सीख सुहाय, सीख दीजिए बांदरा घर बया कौ जाय। उ¦ कहावत मथुरा के शासन पर खरी उतर रही है। आज मथुरा नगर में पीने के पानी का इस कदर हा-हाकार मचा जो अब तक के इतिहास में कभी नहीं देखा गया। इसका कारण शासन के आला अधिकारी हैं।
मथुरा शहर के मध्य लाला नवल किशोर मार्ग पर एक नलकूप है, जिसकी स्थापना मुख समाजसेवी एवं देश के ति अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले लाला नवल किशोर गुप्ता द्वारा लगभग छब्बीस वर्ष पूर्व मार्च 1994 में की थी। इस नलकूप से लगभग आधे शहर की प्यास बुझती है। ातः चार बजे से लगभग आधी रात तक इससे लोग पानी भरकर ले जाते हैं। सैंकड़ों लोग ऐसे भी हैं, जो यहां से पानी ले जाकर घर-घर और दुकान-दुकान पहुंचा कर अपनी आजीविका चलाते हैं।
पिछले दो-चार दिनों से पुलिस का डंडा पानी भरने के लिये आने वालों पर चल रहा था। क्योंकि यहां पर भीड़ ज्यादा होती थी इसलिए पुलिस वाले शहर के मध्य होली गेट चैराहे से ही पानी भरने के लिए आने वालों को वापस भेज रहे थे। अतः ज्यादातर लोग अन्य रास्तों से छुपते-छुपाते पानी भरकर ले जा रहे थे और बहुत से पिटने के डर से वापस भी लौट जाते थे।
जब शहर में पीने के पानी का संकट गहराने लगा और लोग परेशान ज्यादा होने लगे तो मैंने देश स्तर के एक आला अधिकारी को इस बात से अवगत कराया। क्योंकि मैं नलकूप के संस्थापक लाला जी का पुत्र हूं और इसके संचालन की जिम्मेदारी मेरी है। देश के आला अफसर ने मुझसे सिटी मजिस्टᆰेट मनोज कुमार सिंह से बात करने को कहा। मैंने सिटी मजिस्टᆰेट से बात की तो उन्होंने कहा कि यह कोई जरूरी नहीं कि लोग इसी पानीं को पियें। यह सम्भव नहीं कि पानी भरने के लिए आने वालों को नवल नलकूप पर आने दिया जाय। उनका कथन था कि क्या यह जरूरी है कि इसी पानी को लोग पियें, जैसा भी पानीं मिले पी लें। हमें पहले कोरोना को देखना है आदि-आदि। फिर उन्होंने यह भी कहा कि यदि आपके यहां ज्यादा भीड़ लगती है तो उसके लिए दो पुलिस वालों की व्यवस्था के लिए मैं इंस्पेक्टर कोतवाली से कहे देता हूं। आप उनसे बात कर लें। मैंने कहा कि जब आप पानी भरने वालों को आने से रोके बिना नहीं मानेंगे तो फिर इंस्पेक्टर से बात करने का कोई मतलब नहीं।
खैर थोड़ी देर बाद इंस्पेक्टर कोतवाली अवधेश कुमार का फोन आया और बोले कि बताइये आपको क्या तकलीफ है। मैंने कहा कि मुझे अपने लिए कोई तकलीफ नहीं है और वास्तविकता से उन्हें अवगत कराया। उन्होंने मेरी बात से सहमति जताई और कहा कि आप सही कह रहे हैं। गरीब आदमी को इस समय पीने के लिए नवल नलकूप जैसा मीठा और शुद्ध पानी तो मिलना ही चाहिये। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि मैं और कोतवाली के सभी पुलिसकर्मी भी उसी पानी को पीते हैं। लेकिन उन्होंने बेबसी में अपनी असमर्थता जताई क्योंकि जो आदेश ᅤपर के हो उन्हें वह कैसे रोक सकते हैं।
इस सबके बाद नवल नलकूप पर आने वाले रास्ते पर टीन ठोक कर पूरा पैक कर दिया गया। यह टीन आर्य समाज पर ठोक दी। आज इतनी सख्ती थी कि थोड़े से ही लोग पानी भर सके। जो लोग ातः चार बजे से लेकर सूर्योदय के आसपास तक पानी भर सके थे। वह जनरल गंज, कंपू घाट आदि की दूरी घूमकर तय करने के बाद या रेल की पटरी पर छुपते-छुपाते आऐ। बाद में जैसे ही पुलिस वाले अपनी अपनी ड○ूटी पर सिय हुए तब तो नलकूप पर एकदम सन्नाटा पसर गया।
सिटी मजिस्टᆰेट को यह नहीं पता कि बहुत से गरीब लोग ऐसे भी हैं जिनके घर में न पंप है और न नल। वहीं जिनके यहां पंप हैं वे ज्यादातर सभी खारी हैं और जिनके नलों में पानी आता है, वह अधिकांशतः दूषित होता है। यहां का पानी सिर्फ पीने के पानी का काम नहीं करता, वह दवा का काम भी करता है। पेट के तमाम रोग इस पानी के पीने से दूर हो जाते हैं। जिसके मुंह लग गया वह इस पानी के बगैर रह नहीं सकता। इस बात को मैं नहीं, मथुरा का जनमानस कहता है।
आज शहर में पानी की जो त्रासदी देखी, वह शब्दों में बयां नहीं की जा सकती। लोग समाचार पत्रों में फोन करके अपनी व्यथा व्य¦ कर रहे थे। ऐसा लगता है कि अधिकारियों को सिवाय गली-गली और मोहल्ले-मोहल्ले टीन ठोक कर सील करने और उन्हें घुट-घुट कर तड़पते देखना ज्यादा अच्छा लग रहा है। इससे तो अच्छा यह रहेगा कि घर-घर बाहर से ताला लगाकर लोगों को तड़प-तड़प कर मरने के लिए छोड़ देना चाहिये।
और दूध को भी लोग तरसते रहे
पानी के साथ-साथ दूध के लिए भी लोग पिछले कई दिन से बुरी तरह तरस रहे हैं। छोटे-छोटे बच्चों को एक एक घूंट दूध दुर्लभ हो रहा है। आज तो स्थिति और भी बुरी थी।
दूधियों को देखते ही पुलिस वाले डंडा लेकर पिल पड़ते हैं। शहर में दूध की सप्लाई लगभग न के बराबर है। कुछ दूधिये चोरी-छिपे शहर के किनारे वाले स्थानों पर 50 और 60 रू. लीटर दूध बेचते देखे गऐ। दूध भी आधा पानी आधा दूध। जबकि पहले 44 रु. लीटर शहर में बिक रहा था अच्छा दूध। वहीं दूसरी ओर गांवों में दूध की मि↑ी पलीत हो रही है। किसान अपनी गाय भैंसों के दूध को सानीं में मिलाकर खिला रहे हैं।
शासन का मानना है कि शहर की दुकानों पर दूध बिकने से भीड़ होती है। यही स्थिति सब्जी और अन्य सामानों की बिी वाली बात पर लागू होती है। सोचने की बात है कि आप पहले दो-ढाई घंटे की छूट देते थे। ग्राहक को घर से आने और जाने में भी टाइम लगता है। इतने अल्प समय में कैसे पूरा शहर दुकानों से खरीददारी कर लेगा? भीड़ लगना स्वाभाविक है।
तिदिन कम से कम सुबह शाम 3 घंटे का समय देना चाहिए ताकि लोग फैले बिखरे होकर सामान की खरीददारी कर सकें। लेकिन कौन समझाए इन महा बुद्धिमानों को। कहावत है कि जाके पैर न फटी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई। क्योंकि इनकी कोठियों पर तो सभी सुख सुविधाएं उपलब्ध है।