Saturday, November 23, 2024
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दुर्घटना से देर भली के अपने ही नारे को ठेंगा दिखा रही हैं सरकार की रफ्तार बढ़ाने वाली योजनायें

विजय कुमार गुप्ता

मथुरा। रेल गाड़ियों और सड़क पर चलने वाले वाहनों की दिनोंदिन बढ़ती रफ्तार दुर्घटनाओं का मुख्य कारण है लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं है।
एक ओर सरकार दुघटना से देर भली का नारा प्रचारित करती है, वहीं दूसरी ओर दिन-प्रतिदिन रेल गाड़ियों की रफ्तार बढ़ा कर शेखी बघारी जाती है कि इतने कम समय में दिल्ली से बंबई, कलकत्ता, मद्रास आदि-आदि स्थानों पर रेल गाड़ी पहुंचेगी।
मुसाफिर भी उसी रेल से सफर करना पसंद करते हैं जो कम से कम समय में गतंव्य तक पहुंचा दे। इस बात पर कोई नहीं सोचता कि तेज रफ्तार की रेलगाड़ियों या सड़क पर चलने वाले वाहनों से कितनी अधिक दुर्घटनायें हो रही हैं?
आज से लगभग 5-6 दशक पूर्व मथुरा से दिल्ली रेलगाड़ियों करीब चार-साढ़े चार घंटे में पहुंचती थीं। उस समय रेलगाड़ियों से लोग कम कटते थे। अब तो न सिर्फ इंसान सब्जी की तरह कट रहे हैं बल्कि निरीह पशुओं की मौत भारी मात्रा में हो रही है इन तेज रफ्तार रेलगाड़ियों से।
यही स्थिति सड़क पर चलने वाले वाहनों की है। रेलगाड़ियों और सड़क पर चलने वाले वाहनों की रफ्तार आधी से भी कम होनी चाहिये तभी दुर्घटना से देर भली का नारा सार्थक हो सकेगा।
कई दशक पूर्व मुझे महाराष्ट्र में नैरोगेज की रेलगाड़ियों में बैठने का मौका मिला। मैंने देखा कि वह इतनी कम रफ्तार में चलती थी कि उस रेलगाड़ियों के किसी यात्री को प्यास लगे तो रास्ते में पड़ने वाले नल पर चलती गाड़ी से उतर कर पानी पीले और दौड़ कर फिर गाड़ी में बैठ जाये। खैर अब तो नैरोगेज (सबसे छोटी रेल लाइन) काफी समय पूर्व ही बंद हो चुकी है।
सरकार और जनता को सोचना चाहिये कि तेज रफ्तार ज्यादा अच्छी या जिंदगी? शायद लोग यही उत्तर देंगे कि जिंदगी ज्यादा कीमती है।
रेलगाड़ियों की रफ्तार तेज करके शान दिखाने के बजाय रफ्तार घटाकर जान बचाने की शान ज्यादा सार्थक होगी। इसी प्रकार सड़क पर चलने वाली गाड़ियों में ऐसा सिस्टम होना चाहिये जो सौ किलोमीटर की रफ्तार से अधिक गाड़ी चल ही न सके।
शायद लोग इस बात पर हंसेंगे और मजाक बनायेंगे लेकिन जब कभी हंसने और मजाक बनाने वालों पर बीतेगी तब वे इस बात का मर्म समझेंगे। जब किसी का घर उजड़ता और बिगड़ता है तब उसपर जो बीतती है, उसे वही जानता है। उन बेचारे निरीह पशुओं की जान भी तो कम कीमती नहीं है जो रोजाना हजारों की संख्या में काल के गाल में समा रहे हैं तथा अंग-भंग होकर तड़प-तड़प कर मर रहे हैं।
इस तीव्र गति के युग से तो बैलगाड़ी युग लाख गुना ज्यादा अच्छा था।

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