विजय कुमार गुप्ता
मथुरा। जिस प्रकार नरेन्द्र मोदी ने मुस्लिम महिलाओं पर अत्याचार वाली तीन तलाक की कुप्रथा को कानून बनाकर समाप्त किया है, इसी प्रकार मुस्लिम समाज के बच्चों पर भयंकर अत्याचार करने वाली खतना की कुप्रथा को भी कानून बनाकर समाप्त कर देना चाहिये।
धर्म के ठेकेदार बने कुछ कट्टर पंथी लोग धर्म की दुहाई देकर चिल्लपों जरूर करेंगे किंतु इन निरीह बच्चों पर हो रहे जघन्य अत्याचारों के बारे में भी सोचना चाहिये। क्या इन बच्चों के बाल अधिकार नहीं होते?
मुस्लिम देशों तक यह कुप्रथा समाप्त हो रही है और धर्म निरपेक्ष कहे जाने वाले हिंदुस्तान में यह बदस्तूर जारी है। ऐसा क्यों? अभी कुछ दिन पूर्व समाचार पत्रों में छपा था कि खतना प्रक्रिया के दौरान एक बच्ची की मौत हो गयी। यह कितनी शर्मनाक बात है। आखिर समझ में नहीं आता कि अपने ही कलेजे के टुकड़ों पर धर्म और मजहब के नाम पर ऐसा घनघोर अत्याचार क्यों किया जाता है?
पहले हिन्दुओं में भी सती प्रथा को धर्म से जोड़ रखा था और बेचारी अबलाओं को जबरदस्ती पति के साथ चिता में झौंक दिया जाता था। जन जागृति हुई और राजा राम मोहन राय के प्रयास रंग लाये तथा यह कुप्रथा बंद हुई।
सोचने की बात है कि ईश्वर हो या अल्लाह अथवा प्रकृति ने जिस संरचना से हमको भेजा है, इससे छेड़छाड़ करना भी अधर्म है, धर्म या मजहब नहीं। यदि हमारे बच्चों को कोई चांटा मार दे तो हम सहन नहीं कर पाते और लड़ने मरने को तैयार हो जाते हैं, वहीं दूसरी ओर हम स्वयं ही अपने बच्चों के कोमल गुप्तांगों में धारदार हथियारों से प्रहार करते हैं, क्या हमको अपने बच्चों पर तरस नहीं खाना चाहिये?
यह कुप्रथा हमारे यहां की नहीं है। यह तो अरब देशों से आई है। उन देशों जहां से यह कुप्रथा आई है, अब वहां भी यह प्रथा धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। कहावत है कि जैसा देश वैसा वेश। बाहर से आई कुप्रथा को हमने क्यों आत्मसात कर रखा है? यहां के जो मुसलमान हैं वे अरब देशों के नहीं है, वे तो यहीं के वाशिंदे हैं। इनके पूर्वज हिंदू ही थे, उन्हें मुस्लिम आक्रांताओं ने अत्याचार करके जबरदस्ती मुसलमान बनाया है। इस बात को सभी जानते हैं।
अतः जैसा देश वैसा वेश वाली बात को आत्मसात करते हुए मुस्लिम भाईयों को और किसी के लिये न सही अपने ही कलेजे के इन मासूमों के लिये सही। इनपर रहम खाना चाहिये और इस कुप्रथा से तौबा कर लेनी चाहिये।