मथुरा। विश्वपटल पर आस्था का केन्द्र मथुरा का नाम आते ही दुनियाभर के लोगों के मानस पटल पर चतुर्वेदी समाज के लोग आ जाते हैं क्यों कि चतुर्वेदी समाज मथुरा की पहचान है। मथुरा से लेकर दुबई तक फैले इन चतुर्वेदी समाज का एक वर्ष का सबसे बड़ा त्यौहार के रुप में आज कंस वध मेला का आयोजन किया जा रहा है।
प्रत्येक वर्ष होने वाले इस मेला में भगवान श्री कृष्ण की आज से 5000 हजार साल पुरानी द्वापर युग की कंस वध लीला का दर्शन भक्तों को करने को मिलेगा। कोविड-19 की गाइड लाइन का पालन करते हुए चतुर्वेदी समाज के लोग कंव वध मेला में आज यानि 24 नवंबर को पूरे उत्साह के साथ हिस्सा लेंगे।
अत्याचार पर सदाचार की विजय के प्रतीक इस मेला में देशभर से ही नहीं दुबई और कई देशों से चतुर्वेदी समाज के लोग हिस्सा लेने के लिए मथुरा आए हुए हैं। इस मेला की एक विशेषता यह भी है कि इस मेला में दुनियाभर में रहने वाले चतुर्वेदी समाज के लोगों का समागम होता है। ब्रज विभूति पं. बालकृष चतुर्वेदी की माथुर चतुर्वेद ब्राह्मणों का इतिहास नामक पुस्तक में बताया गया है कि यह कंस वध मेला भगवान श्री कृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभ के समय से चला आ रहा है।
श्री माथुरा चतुर्वेद परिषद के संरक्षक एवं उद्योपति महेश पाठक का कहना है कि कंस का मेला केवल चतुर्वेद समाज का कार्यक्रम के रुप में नहीं देखा जाना चाहिए। जिस प्रकार रामलीला के माध्यम से आज की आधुनिक पीढी में अपने भारतीय संस्कृति और सभ्यता की समझ और संस्कार देने का कार्य किया जा रहा है कि उसी प्रकार कंस मेला के माध्यम से चतुर्वेद समाज के बालकों को संस्कारित किया जाता है। यह मेला विदेश में रह रहे चतुर्वेद बालकों को एक दिशा देने का कार्य करता है। क्यों कि इस मेले में समाज की हर पीढी को लेकर एकत्र होते हैं।
पुराणों में भी कंव वध मेला का वर्णन प्रमुखता से है। गर्ग संहिता के गोलोग खण्ड के नवे अध्ययाय के अनुसार देवकी के विवाह के समय इस आकाशवाणी ने कंस को विचलित कर दिया था कि उसका आठवां भांजा ही उसका काल बनेगा। इस आठवें भांजे को मारने के लिए कंस ने हर प्रकार के जतन किए और पूतना सहित कई राक्षसों को भेष बदलकर भेजा। लेकिन जब उसके सारे प्रयास असफल हो गए तो कंस ने भगवान श्री कृष्ण और बलराम को मारने के लिए मल्ल क्रीड़ा महोत्सव के रुप में फिर एक चाल चली और महोत्सव का आयोजन किया। जब दोनों भाई मल्ल क्रीड़ा महोत्सव देखने के लिए आए तो उन्होंने धोबी वध, कुबलियापीड़ वध और अंत में क ंस द्वारा विशेष रुप से तैयार किए गए मल्ल चाणुर और मुस्टिक का वध किया।
कंस वध मेला के बारे में समाज के भी यह भी कहा जाता है कि कंस के दरबार में छज्जू नामक चौबे रहा करते थे और उन्होंने ही कंस के मारने की तरकीब श्रीकृष्ण और बलराम को बताई थी और कंस का वध उनके द्वारा ही कराया गया। धानुष महोत्सव में भाग लेने आए दोनों भाइयों को चतुर्वेद बालक मुख्य आयोजन स्थल पर जब ले जाने लगे तो उन्हें रास्ते में कंस का धोबी मिलता है बातों-बातों में ही वे उसे मार देते हैं और उसके पकड़े लेकर दर्जी के पास जाते हैं और उन राजशाही कपड़ों को कटवा कर अपने नाप के बनवाते हैं। कृष्ण बलराम कंस परिवार के उन पकड़ों को पहनकर इसलिए जाते हैं कि वह आसानी से कंस के पास तक पहुंच सकें। लाठी इस मेले का आवश्यक अंग है। जिस पर लगातार मेहदी और तेल लगाकार कई महिने पहले से ही तैयार किया जाता है।
कंस मेला के दिन चतुर्वेदी समाज के लोग एक ओर से कंस के पुतले को लेकर जाते हैं जबकि दूसरी ओर से हाथी पर विराजमान होकर भगवान कृष्ण और बलराम कं स टीले पर पहुंचते हैं। चूंकि हाथी के प्रयोग पर अब प्रतिबंध लग गया है इसलिए अब भगवान कृष्ण बलराम के स्वरुप गाड़ी में विराजमान होकर कंस के अखाड़े पर पहुंचते हैं। कंस अखाड़े पर श्रीकृष्ण द्वारा कंस का वध किया जाता है और तभी चतुर्वेदी समाज के बालक गाते हैं-
कंस बली रामा के संग सखा शूर से ये आए ब्रजनगरी जू…
कंस के वध के बाद उसके चेहरे को बल्ली पर टांगकर आगे आगे चतुर्वेदी मसाज के लोग वापस जाते हैं और उनके पीछे ठाकुर के स्वरुप आते हैं चतुर्वेदी बालक गाते हुए चलते है कि –
कंसै मार मधुपुरी आए, कंसा के घर के घबराए..
अगर चंदन से अंगन लिपाए, गज मुतियन के चौक पुराए
सब सखान संग मंगल गाए, दाढी लाए मूछउ लाए, मार मार लट्ठन झूर कर आए।
कंस वध के बाद अंत में कंस खार पर कंस के पुतले को पटक कर उसकी पिटाई करते हैं और सबसे अंत में मिहारी सरदारों द्वारा विश्रामघाट पर पहले दोनों भाई यानि श्रीकृष्ण और बलराम की आरती की जाती है। फिर यमुना महारानी की आरती होती है। इसके बाद कंस की हत्या से मुक्ति के लिए देव उठान एकादशी पर समाज के लोग तीन वन की परिक्रमा करते हैं। यह परिक्रमा तीन वन मथुरा, गरुड़ गोविन्द और वृंदावन की करते हैं। यह परिक्रमा करीब 55 किमी लंबी है। इस विशेष परिक्रमा में देश और विदेश में रहने वाले सभी चतुर्वेदी समाज के लोग भाग लेते हैं। इसी मुक्तिदायनी परिक्रमा के साथ ही यह पौराणिक कंस वध मेला संपन्न हो जाता है।
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