Monday, September 30, 2024
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आखिर हिन्दू मंदिरों के लिए क्यों बनाया गया देवस्थान बोर्ड जानिए देवस्थानम बोर्ड के बारे में

उत्तराखंड में देवस्थानम बोर्ड को खत्म करने की मांग लगातार जोर पकड़ रही है। विगत दिनों केदारनाथ यात्रा पर पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केदारनाथ को तीर्थपुरोहितों के प्रतिनिधिमंडल ने देवस्थानम बोर्ड को भंग करने के लिए एक ज्ञापन भी सौंपा।


प्रधानमंत्री की यात्रा शुरू होने से पहले ही चार धाम से जुड़े पुरोहित यात्रा का विरोध कर रहे थे। उनकी मांग थी कि देवस्थानम बोर्ड को भंग किया जाए। विरोध बढ़ता देख यात्रा से 3 दिन पहले अफरा-तफरी में उत्तराखंड के सीएम, राज्य में मंत्री हरक सिंह रावत और सुबोध उनियाल पुरोहित समाज से बातचीत के लिए केदारनाथ गए थे।

सबसे पहले समझिए देवस्थानम बोर्ड क्या है?


2017 में उत्तराखंड में भाजपा सत्ता में आई और त्रिवेंद्र सिंह रावत मुख्यमंत्री बने। उन्होंने चारों धाम यानी यमुनोत्री, गंगोत्री, बद्रीनाथ और केदारनाथ समेत राज्य के 53 मंदिरों के संचालन के लिए सरकारी बोर्ड बनाने का फैसला लिया।


उत्तराखंड सरकार की कैबिनेट ने नवंबर 2019 में चार धाम श्राइन बोर्ड के गठन को मंजूरी दी थी। इसके बाद दिसंबर 2019 में “उत्तराखंड चार धाम देवस्थानम मैनेजमेंट बिल” को विधानसभा में पेश किया गया। इस बिल का खासा विरोध हुआ, लेकिन ये विधानसभा में पास हो गया। जनवरी 2020 में राजभवन से मंजूरी मिलने के बाद ये एक्ट के रूप में प्रभावी हो गया। इसी एक्ट के तहत 15 जनवरी 2020 को ‘चार धाम देवस्थानम बोर्ड’ बनाया गया। इसके बाद बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री समेत प्रदेश के कई मंदिरों का प्रबंधन इस बोर्ड के जिम्मे आ गया।

बोर्ड में कौन-कौन शामिल था?


एक्ट के अनुसार, मुख्यमंत्री बोर्ड के अध्यक्ष बने और धार्मिक मामलों के मंत्री उपाध्यक्ष। बोर्ड में 29 सदस्य होते हैं। इनमें सात सीनियर कअर अफसर और 20 नामित सदस्य होंगे। मुख्य सचिव, पर्यटन सचिव, वित्त व संस्कृति विभाग सचिव, भारत सरकार के संयुक्त सचिव स्तर तक के अधिकारी पदेन सदस्य हैं। इसके अलावा टिहरी रियासत के राजपरिवार से एक सदस्य, हिंदू धर्म का पालन करने वाले 3 सांसद और 9 विधायक, राज्य सरकार द्वारा 4 दानदाता, हिंदू धर्म के धार्मिक मामलों का अनुभव रखने वाले व्यक्ति, पुजारियों, वंशानुगत पुजारियों के तीन प्रतिनिधियों को बोर्ड में शामिल किया गया।


देवस्थानम बोर्ड बनने से पहले क्या व्यवस्था थी?


चार धाम तीर्थ पुरोहित हक हकूकधारी महापंचायत समिति में महामंत्री हरीश डिमरी कहते हैं, पहले तो यह समझने की जरूरत है कि चारों धाम और उनसे जुड़े करीब 49 मंदिर के प्रबंधन की अपनी व्यवस्था है।
जैसे केदारनाथ और बद्रीनाथ धाम की अपनी समिति है। इस समिति में सरकार के भी प्रतिनिधि होते हैं।

राज्यपाल 10 सदस्यों को नियुक्त करता है, इसके अलावा दोनों धामों से जुड़े जिलों के 3 विधायक, 4 जिला पंचायत (पौड़ी, टिहरी और आने वाली दो और पंचायत) के सदस्य इस समिति का हिस्सा होते हैं। 10 सदस्यों में पुरोहित, पंडे और मंदिर की व्यवस्था से जुड़े अन्य लोग होते हैं।


यमुनोत्री में वहां का राजा धाम और उससे जुड़े मंदिरों की सेवा और प्रबंधन के लिए सदस्य नियुक्त करता है। गंगोत्री में भी कमोबेश इसी प्रकार की व्यवस्था है। यह व्यवस्था केवल लोगों की नहीं है बल्कि परंपरा, आस्था और श्रद्धा की है।


हरीश डिमरी ‘डट्टा पट्टा’ नाम की एक किताब का जिक्र करते हुए कहते हैं कि इस किताब में बद्रीनाथ धाम और उससे जुडे़ मंदिरों की अनादिकाल की व्यवस्था का वर्णन है। मंदिर में अलग-अलग समुदाय से जुड़े लोगों के अलग-अलग काम होते हैं। जैसे -डिमरी समुदाय के लोग भगवान के लिए चंदन घिसने, पूजा की सामग्री तैयार करने का हक रखते हैं। केवल यही समुदाय है जो मंदिर के गर्भगृह में ‘रावल’ यानी मुख्य पुजारी के साथ अंदर जा सकता है। यह व्यवस्था बद्रीनाथ धाम की है। यहां मंदिर का पुजारी दक्षिण भारत के ‘नंबूरी’ समाज से आता है। केदारनाथ मंदिर में भी कमोबेश यही व्यवस्था है।

बोर्ड बनने के बाद क्या बदला?


बोर्ड बनने के बाद मंदिर के प्रबंधन में सरकार का दखल बढ़ गया। चार धाम देवस्थानम बोर्ड में ‘अमल दस्तूरी’ की व्यवस्था खत्म कर दी गई। यानी मंदिर की आय का तय हिस्सा जो मंदिर की व्यवस्था से जुड़े लोगों तक पहुंचता था वह पहुंचना बंद हो गया।


चढ़ावे पर भी बोर्ड का नियंत्रण हो गया। बोर्ड में इन पैसों का इस्तेमाल निर्माण कार्य जैसे-पार्क बनाना, स्कूल बनाना या अन्य तरह के कामों में लगाने का प्रावधान है। यानी अब जो भी निर्माण कार्य मंदिर के चढ़ावे की रकम से होगा उसमें सरकारी अधिकार होगा, उसका सनातन धर्म से कोई लेना देना नहीं होगा। उसे स्वतंत्र दूसरे सरकारी निर्माण की तरह ही देखा जाएगा।


चार धाम तीर्थ पुरोहित हक हकूकधारी महापंचायत समिति के कृष्णकांत कोटियाल कहते हैं- ‘बोर्ड बनने के बाद इस व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया गया। अब बोर्ड में प्रशासनिक लोग हैं। मुख्यमंत्री अध्यक्ष तो संस्कृति मंत्री उपाध्यक्ष हैं। चीफ ऑफिसर है। उसके नीचे और भी कई लोग हैं। मंदिर के चढ़ावे और प्रबंधन पर इनका दखल है।’


बोर्ड बनाने के पीछे सरकार का क्या तर्क था?


लगातार विरोध के बाद भी बोर्ड को बनाने के पीछे सरकार का तर्क था कि चार धाम यात्रा पर आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों को देवस्थानम बोर्ड बनने के बाद और अच्छी सुविधाएं मिलेंगी। साथ ही बोर्ड में पुरोहित-पंडा सभी के हक पहले की तरह ही रहेंगे।


क्यों हो रहा है विरोध?


बोर्ड बनने के बाद ही राज्यभर में मंदिरों से जुड़े संत और पुजारी बोर्ड के विरोध में उतर आए। राजनीति भी बढ़ने लगी। मार्च 2021 में त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाने के पीछे भी देवस्थानम बोर्ड का विरोध एक प्रमुख वजह थी। नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने 9 अप्रैल, 2021 में भरोसा दिया था कि यह बोर्ड भंग किया जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।


उत्तराखंड विश्व हिंदू परिषद के अजय नागर कहते हैं, ‘क्या मस्जिदों, गुरुद्वारों या अन्य समुदाय के धार्मिक स्थलों पर सरकार का नियंत्रण है। गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी पूरी तरह से गुरुद्वारे की व्यवस्था देखती है। इनके अस्पताल और अन्य वेलफेयर संस्थाएं हैं। लेकिन यह अपने धर्म के प्रचार के साथ सेवा कार्य करती हैं। जबकि मंदिरों की आय से सरकार सनातन परंपरा और उनके प्रचार प्रसार से अलग स्वतंत्र विकास कार्य कार्य कराने में अमादा है।’
कृष्णकांत कोटियाल भी यही कहते हैं-‘ मंदिर का प्रबंधन कोई मशीनी व्यवस्था नहीं है। यहां समर्पण, भक्ति की जरूरत होती है। लेकिन जब सरकार इन पर अपना नियंत्रण कर लेगी तो जरूरी नहीं कि बोर्ड का व्यक्ति मंदिरों के प्रति श्रद्धावान हो, वह सनातनी परंपरा का अनुयायी हो। ऐसे में वह इसे एक सामान्य सरकारी संपत्ति समझकर इसका प्रबंधन करेगा, इसकी आय का उपयोग करेगा।’


कांग्रेस ने भी उत्तराखंड सरकार पर धर्म विरोधी होने का आरोप लगाया था। तत्कालीन सरकार पर आरोप था कि सरकार की नजर मंदिरों में आने वाले दान और चढ़ावे पर है। भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने कानून की संवैधानिक वैधता की जांच करने की मांग को लेकर उत्तराखंड हाईकोर्ट में याचिका भी दायर की थी।

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