डॉ. सुमित्रा अग्रवाल
कोलकाता। ऋषि पंचमी से जुड़ी कथा का उल्लेख श्रीब्रह्मांडपुराण में आता है। कथा कुछ इस प्रकार है की विदर्भ देश की राजधानी में उत्तक नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी सुशीला नामक पत्नी बड़ी पतिव्रता थी। सुशीला की दो संतानों में एक पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्र बहुत ही ज्ञानी, सद्गुणों से विभूषित था। ब्राह्मण ने पुत्री के युवा होने पर समान कुल के योग्य वर के साथ उसका विवाह कर दिया। परंतु शीघ्र ही वह विधवा हो गई। अपनी विधवा पुत्री को लेकर दुःखी ब्राह्मण-दंपत्ति गंगा के तट पर कुटिया बना कर रहने लगा।
पातिव्रत्य धर्म निभाते हुए उस विधवा ने अपना समय पिता की सेवा-शुश्रूष में बिताना शुरू कर दिया। एक दिन अचानक ही उसके शरीर में कीड़े पड़ने लगे और देखते ही देखते उसके सरे शरीर में किरमिया चलने लगी। उसकी इस दुर्दशा को देखकर माँ दुःखी होकर जोरो से रोने, विलाप करने लगी। माता ने अपने ज्ञानी पति से बेटी की इस दुर्गति का कारण पूछा। ब्राह्मण ने समाधि लगाकर बताया- ष्इस जन्म से पहले सातवें जन्म में भी इस कन्य ने ब्राह्मणकुल में ही जन्म लिया था। उस जन्म में रजस्वला होकर भी इसने भोजनादि पात्रों को स्पर्श दिया था।
इसी पाप के कारण इसका शरीर कृमिमय हो गया। दूसरों को ऋषि पंचमी का व्रत करते देखकर का भी इस जन्म में इसने यह व्रत नहीं किया। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि रजस्वला स्त्री को भोजनादि के पात्रों का स्पर्श नहीं करना चाहिए, क्योंकि उस स्थिति में वह अपवित्र होती है।ष् ब्राह्मण ने आगे बताया कि यदि उसकी पुत्री शुद्ध मन से ऋषि पंचमी का व्रत करेगी तो उसके सारे पाप , कष्ट और रोग दूर हो जाएंगे और अगले जन्म में अखंड सौभाग्य भी मिलेगा । अपने पिता की बात सुनकर ब्राह्मणपुत्री ने विधि-विधानानुसार पूर्ण श्रद्धाभाव से ऋषिपंचमी का व्रत उपवास रखा और पूजन किया, तो उसके प्रभाव से उसकी बीमारी ठीक हो गई। अखंड सौभाग्य तथा जाने अनजाने किये गए पापो की निवृति के लिए इस कथा को ऋषि पंचमी के दिन पढ़े या सुने।