Tuesday, April 8, 2025
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एक गाय जिसने मुझे सिर हिलाकर यानी इशारा करके बुलाया

विजय गुप्ता की कलम से

 मथुरा। बात लगभग ढाई दशक पुरानीं है। किसी ने मुझे बताया कि एक लाचार गाय यमुना किनारे आगरा होटल के सामने अधजली स्थिति में पड़ी हुई है। मैं उसे देखने पहुंचा, जब मैं थोड़ी दूर से उसे देख रहा था, तो गाय की नजर मुझ पर पड़ गई और वह अपना सिर हिलाने लगी। यानीं मुझे ऐसा लगा कि कह रही हो "मेरे पास आ" वह गाय टकटकी लगाकर बराबर मुझे देखे जा रही थी। उसका सिर हिलाना स्वीकारात्मक यानीं ऊपर नींचे की मुद्रा में था न कि अगल-बगल की नकारात्मक मुद्रा में।
 जब मैं उसके पास गया तो उसका सिर हिलाना बंद हो गया। मैं चौंक सा गया कि गाय मुझे इंसानों की तरह इशारा करके बुला रही है। ऐसा तो मैंने पहले कभी नहीं देखा हां यह तो देखा है कि अपनी मंशा जताने के लिए रंभाती हैं या गुस्सा होने पर सींग से मारने लग जाती हैं किंतु इस तरह की घटना से पहली बार रूबरू हुआ। गाय के इस इशारे ने मुझे न सिर्फ विस्मित किया बल्कि मेरा मन यह कहने लगा कि इसे घर ले चलना चाहिए। मुझे कुछ ऐसा महसूस हो रहा था कि शायद मेरा इस गौमाता से कोई गहरा नाता है, भले ही इस जन्म का हो या पिछले जन्म का। इसके बाद, मैं वाहन की व्यवस्था करके बड़ी मुश्किल से उसे अपने घर ले आया। मुश्किल इसलिए कि गाय बड़े लंबे चौड़े डील डौल की थी।
 दरअसल बात यह थी कि वृद्ध गाय आशक्त होकर यमुना जी की रेती में बैठ गई थी और उससे उठा नहीं गया तथा कई दिनों तक ऐसे ही बैठी रही। उन दिनों जनवरी का महीना था और कड़ाके की ठंड थी इसलिए कुछ लोगों ने उसे तपाने के लिए आग जलाई किंतु दुखद बात यह रही कि देर रात में जब लोग चले गए तथा हिला डुली के चक्कर में वह गाय आग तक पहुंच गई और बुरी तरह जल गई।
 अब बढ़ता हूं आगे, और बताता हूं कि इस गाय भक्ति के चक्कर में मुझे छटी का दूध याद आ गया। गाय को हमने अपने घर में फाटक के अंदर सीमेंट के पक्के फर्श पर लाकर रखा। उसके बाद गुड़ वगैरा कुछ खिलाकर हम लोग सो गए किंतु आंख लगते ही गाय ने बड़े जोर-जोर से पैर चला कर पूरे घर को अधर कर दिया क्योंकि वह लेटे-लेटे ही घूमने लगी और दीवारों पर उसके खुर तेज आवाज के साथ धम्म धम्म करके टकराने लगे। मैं बुरी तरह घबरा गया कि यह क्या मुसीबत गले लगा ली। संयोग ऐसा क दूसरे दिन ही एक और वृद्ध व कमजोर गाय घर के बाहर लगी पानीं की टंकी में पानीं पीते पीते गिर गई और वह उठ न सकी। एक मुसीबत से तो पहले ही परेशान था यह दूसरी मुसीबत और दरवाजे पर ही आ गई। मैंने सोचा चलो इसके साथ भी कोई संस्कार होगा और उसे भी घर के अंदर ले आया।
 पहली वाली गाय दिन-रात पैर चलाने लगी तब मेरी समझ में आई कि पक्का फर्ज इसके अनुकूल नहीं है क्योंकि वह यमुना किनारे एक ही करवट पड़े पड़े लग चुकी थी और उस हिस्से में मवाद भी पड़ चुका था। उसमें इतनी दुर्गंध हो गई कि सभी परिजनों का सांस लेना मुश्किल हो गया। घरवाले बुरी तरह परेशान, मैंने एक बुग्गी बगैर कंकड़ की पीली मिट्टी मंगाई और दोनों गायों को उस पर रखा तथा वेटरनरी कॉलेज के तत्कालीन डीन डॉ० मिश्रा से संपर्क किया। उनसे कहा कि आप आकर इन गायों को देखो और उपचार की व्यवस्था बनाओ।
 डॉ० मिश्रा ने अपनी व्यस्तता बताई तथा कहा कि मैं नहीं आ पाऊंगा, चूंकि मुझे पता था कि वे वेटरनरी के बाहर भी जिले भर में दूर-दूर तक पशुओं का ऑपरेशन करने को जाते हैं तथा अपनी भरपूर फीस लेते हैं। मैंने उन्हें यह बात बताई तो वे बोले कि पांच सौ रुपए लेता हूं, मैंने कहा कि इसकी आप चिंता मत करो पांच सौ ही दूंगा। वे आये तो मैंने घर में घुसते ही सबसे पहले पांच सौ रुपए उनके हाथ पर रखे। इस पर वे एकदम हक्के बक्के से रह गए क्योंकि उन्हें ऐसी उम्मीद नहीं थी।
 डॉ० मिश्रा बोले कि नहीं नहीं आपसे इतने नहीं लूंगा। आपसे तो सिर्फ टोकन बतौर सौ रुपए ही लूंगा। खैर उन्होंने सिर्फ सौ रुपए ही लिए तथा दो चार बार खुद ही आए तथा हर बार सिर्फ सौ रुपए ही लिए किंतु पहली वाली गाय की सड़न और बदबू से मैं बहुत ज्यादा परेशान हो गया और उनसे कहा कि डॉक्टर साहब इस समस्या से मुझे बचाओ क्योंकि पूरा घर तौबा तौबा कर उठा तथा हमारे पारिवारिक चिकित्सक स्व० डॉक्टर के. जी. बंसल ने घरवालों से कह दिया कि या तो इसके पागलपन को बंद कराओ अथवा घर छोड़कर कहीं और जाकर रहो वर्ना पूरे घर में बीमारी फैल जाएगी। डॉ० मिश्रा ने मुझसे कहा कि गुप्ता जी यह मुसीबत तो आपने खुद ही गले लगाई है। यह तो आपको झेलनी ही पड़ेगी हां एक तरकीब बताता हूं कि आप पूरे घर में गूगल की धूनी रमाओ। उससे घर में बदबू भी कम होगी तथा गाय के जख्म भी जल्दी ठीक होंगे। मैंने ऐसा ही किया उससे बदबू में काफी राहत मिली।
 दो चार बार तो डॉ० मिश्रा खुद आए उसके बाद उन्होंने डॉ० आर. पी. पांडे्य को रोजाना भेजना शुरू किया तथा जब डॉ० पांडे्य नहीं आ पाते तो एक अन्य डॉक्टर आते जो सरदार थे। डॉ० पांडे्य जो आज भी वेटरनरी कॉलेज में उच्च पद पर कार्यरत हैं, के बारे में एक बात जरूर कहूंगा कि ये डॉक्टर के रूप में पशुओं के भगवान हैं। जिस मनोयोग और सेवा भाव से ये उपचार करते हैं, ऐसा मैंने कोई डॉक्टर नहीं देखा। पैसे के बारे में भी ये कतई लालची नहीं हैं। इसी दौरान मैं अपनी भी शेखी बघारना चाहूंगा कि भले ही डॉ० पांडे्य न चाहते थे किंतु मैं इन्हें भी जबरदस्ती सौ रुपए दिए बगैर नहीं रहता क्योंकि किसी से बेगार लेना मेरे स्वभाव में नहीं है यानी कि अपनीं नाक पर मक्खी नहीं बैठने देता।
 धीरे-धीरे समय गुजरने लगा और मेरी गौ भक्ति तो हो गई उड़नछू तथा भगवान से दिन-रात प्रार्थना करने लगा कि जल्दी से जल्दी इन्हें मुक्ति दो वर्ना मैं पागल हो जाऊंगा क्योंकि चौबीसों घंटे दोनों गायों की चाकरी और ऐसी सिरदर्दी कि न नहाने का टाइम न खाने की फुर्सत ऊपर से घर परिवार व अखबार को देखना। पर पता नहीं कौन सी अदृश्य शक्ति चमत्कारिक रूप से यह अकल्पनींय कार्य करा रही थी।
 इस सब का फायदा यह भी हुआ कि डॉक्टरों को देख देखकर धीरे धीरे मुझे सर्जरी के मामले में अच्छी जानकारी हो गई तथा एक-दो माह के बाद डॉक्टरों को बुलाने की जरूरत नहीं पड़ी और मैं अपने कर्मचारियों की मदद से यह कार्य स्वयं करने लगा। एक बात और वह यह कि मिट्टी में गायों का हिसाब किताब ठीक नहीं बैठ रहा था। अतः मैंने इसके लिए दूसरा विकल्प यह सोचा कि जूट की बोरियों में अरहर की नरम फूंस भरवाकर गद्दी बनाई जाए क्योंकि वह नर्म होने के साथ गर्म भी होती है।
 जब मेरे दिमाग में यह सनक सवार हुई तो फिर पूरे शहर में अरहर की फूंस की तलाश हुई जिस जिसने जहां भी बताया आदमी भेजे किंतु नतीजा ठन ठन गोपाल। खैर भगवान ने मेरी सुनी और पल्लीपार एक जगह अरहर की फूंस मिल गई जिसे अपनी कार में भरवाकर हमारी छोटी बहन के ससुराल वालों (मै० बद्री प्रसाद सतीश चंद्र शोरा वालों) ने मंगाया। दरअसल उन्होंने बताया कि अमुक जगह से मंगवा लो वहां उपलब्ध है। मैंने कहा कि तुम लोगों की कार किस काम आएगी? उसी में भरकर क्यों नहीं मंगवा देते? यह बात उनको लग गई और फटाफट पूरी कार भर कर फूंस मंगवा दी।
 मैंने जूट की चालीस नई बोरियां मंगवा कर उनकी गद्दियां बनवाईं और उन गद्दियों को बाड़े नुमा अपने फाटक के अंदर बिछवा दिया तथा गुदगुदी गद्दियों पर गायों को रखा और दीवाल के सहारे टिकाकर मसनद की तरह तकिया भी लगाकर रखता था ताकि दीवाल की ठंडक से बचें और उन्हें आराम मिले। यह सब देख कर हमारा दिवंगत पुत्र विवेक बड़ा खुश होता और अक्सर उन दोनों गायों के बीच में मूढ़े पर बैठकर बड़ा सुकून महसूस करता था।
 अब आगे की एक और रोचक बात बताता हूं, बोरियों की गद्दियां जब गीली हो जातीं तो उन्हें छत पर ले जाकर सुखाता किंतु कभी-कभी धूप न निकलने या वर्षा आ जाने पर वे सूख नहीं पातीं, इसका निदान कोई नहीं था। अचानक भगवान ने एक ऐसी युक्ति मेरे दिमाग में सुझाई जो बड़ी मजेदार थी। युक्ति यह कि मैंने उस कोठरी में उन गद्दियों को रखकर सुखाना शुरु कर दिया जिसमें उन दिनों जनरेटर चलता था। जनरेटर की गर्मी से कोठरी गर्म हो जाती थी किंतु कभी-कभी एक समस्या हो जाती कि जब बिजली नहीं जाती तो कोठरी गर्म नहीं होती।
 चूंकि मैं तो पूरा सनकी हूं और उस समय तो मुझे ऐसी जबरदस्त सनक सवार थी कि शायद पागलपन की हद को भी पार करने वाली। अतः बिजली के न जाने पर भी मैं जनरेटर को चलवाकर कोठरी को गर्म करके गद्दियों को सुखा लेता था। साथ ही साथ दिन-रात भगवान से प्रार्थना करता कि हे गोपाल मेरी कब तक परीक्षा लोगे? जल्दी से जल्दी अपनी इन गऊओं को अपने धाम में बुला लो।
 खैर लगभग साढे चार माह की तपस्या के बाद गोपाल जी ने मेरी सुनीं और लगभग पन्द्रह दिन के अंतराल में दोनों गऊऐं गौलोक चली गई। उस समय मुझे जो सुकून मिला उसका वर्णन नहीं कर सकता। इसी दौरान हमारे पिताजी का जयंती समारोह भी आया उस कार्यक्रम के दौरान भी मैंने गायों की चाकरी वाली ड्यूटी नहीं छोड़ी तथा जब मैं अपने कर्मचारियों के साथ गायों को पलटा लगवा रहा था यानी कि दूसरी करवट करा रहा था तो अन्य लोगों के साथ तत्कालीन मंत्री प्रो. राम प्रसाद कमल खड़े होकर यह सब देखने लगे।
 मुझे मजाक सूझी मैंने उनसे कहा कि "कमल साहब तमाशा ही देखते रहोगे या खुद भी कुछ मदद करोगे? इस पर कमल साहब झैंप से गए और उन्होंने गायों को दूसरी करवट कराने में खुद भी मदद की। इस घटना के बाद कमल साहब जब जब जहां जहां मिलते हैं तब तब मेरे पशु प्रेम की चर्चा किए बगैर नहीं रहते तथा पूंछते रहते की सेवा का कार्य कैसा चल रहा है? और हर बार एक ही रटना जरूर लगाए रहते कि "विजय बाबू तुम तो पुस्तक लिखने लायक हो" उनके इस वाक्य से मेरा खून बढ़ जाता। सनक या पागलपन की हद तक जाकर जो कुछ घटित हुआ वह मेरे जीवन की ऐसी उपलब्धि बन गई जो ताजिंदगी मुझे सुकून देती रहेगी।
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