विजय गुप्ता की कलम से
मथुरा। बात लगभग बीस पच्चीस वर्ष पुरानीं होगी। गऊ चारण से एक या दो दिन पहले का मामला है। उस दिन मंगलवार था। मंगलवार की याद इसलिए है कि मैं प्रत्येक मंगलवार को असकुंडा घाट स्थित अपने कुलदेव श्री नृसिंह जी के मंदिर में दर्शन करने जाता हूं।
गुसाईं पेड़े वाले के सामने संतघाट पर यमुना किनारे मुझे कुछ लोगों की भीड़ नजर आई। जिज्ञासावश मैं वहां गया तो जो दृश्य देखा उसे देख मेरा कलेजा सा फट गया। वहां एक गाय जो ठीक-ठाक डीलडौल की थी, यमुना जी के किनारे पर खड़ी हुई थी। उसके गले से लेकर टुन्डी तक का पूरा हिस्सा जो लगभग ढाई तीन फुट का होगा, फटा पड़ा था और उसमें से थोड़ा थोड़ा खून भी टपक रहा था।
मैंने पता किया कि यह कैसे हुआ? तो लोगों ने बताया कि रात में यमुना में अचानक बाढ़ आई और यह गाय कहीं से बह कर आ गई तथा घाट के किनारे लग गई। उसके बाद यमुना किनारे के शिकारी कुत्तों ने नौंच नौंच कर यह दुर्दशा कर डाली। उस समय दोपहर का वक्त था। मैं जल्दी से भागकर मंदिर में गया तथा नृसिंह भगवान की देहरी पर माथा टेका और फिर तुरंत वहीं लौट आया।
मैंने सोचा कि इसे घर ले चलना चाहिए ताकि इसकी रक्षा हो सके किंतु समस्या ऐसी विकराल कि मेरा प्लान फेल क्योंकि घाट से ऊपर यानी सड़क तक पहुंचने के लिए छोटी-छोटी और ऊंची ऊंची यानी एकदम खड़ी ऐसी विचित्र सीढ़ियां थीं कि गाय की बात तो दूर इंसान भी बहुत संभल संभल कर ऊपर चढ़ते थे। इससे भी ज्यादा खराब बात यह थी कि उस घाट से दूसरे घाट पर भी नहीं ले जाया जा सकता था क्योंकि यमुना जी की रेती का पहाड़ सा दोनों और खड़ा हुआ था। अब तो मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया कि क्या करूं कैसे करूं? यह भी मन गवारा नहीं कर रहा था कि भगवान के नाम पर इसे इसी दशा में छोड़कर चला जाऊं क्योंकि दिन ढलते ही शिकारी कुत्ते उसकी जो दशा करेंगे उसकी कल्पना मात्र से सिहरन होने लगी।
इसके लिए मेरे दिमाग में एक युक्ति आई कि कुछ लोगों की मदद से इसे नाव के द्वारा किसी दूसरे घाट पर ले जाकर फिर वहां किसी वाहन की व्यवस्था करके घर तक ले जाया जाय। मैं फटाफट अपने घर पर आया तथा दो तीन कर्मचारियों को साथ लेकर वापस वही पहुंच गया।
अब फिर समस्या खड़ी हो गई कि कोई नाव वाला गाय को अपनीं नाव में रखने को तैयार नहीं। खैर यमुना मैया की कृपा से एक नाव वाला ऊने दूने पैसों के लालच में गाय को अपनीं नाव में रखकर दूसरी जगह पहुंचाने को तैयार हो गया। इसके बाद दस बारह लोगों की मदद से उस गाय को जैसे-तैसे नाव में रखा और कंपू घाट स्थित पुलिस चौकी के पास स्थानींय लोगों की मदद से उतारा। गाय की हिम्मत इतनी जबरदस्त थी कि उस स्थिति में भी वह बेचारी कुछ दूर चली और उसके बाद उसकी सामर्थ जवाब दे गई। जहां तक गाय चली वह जगह ऐसी थी कि वहां पर वाहन आ सकता था। इसके बाद मैंने माल ढोने वाले टेंपो की व्यवस्था की तथा गाय को घर ले आया।
गाय के घर आते ही मैंने वेटरनरी कॉलेज के डॉक्टर रुद्र प्रताप पांडे को फोन करके सारी स्थिति बताई। डॉक्टर पांडे वही हैं जिनकी चर्चा मैंने पिछले लेख में की थी। मैं अपनी बात को फिर दोहराऊंगा कि ये केवल पशुओं के डॉक्टर ही नहीं बल्कि घायल पशुओं के मसीहा हैं। मैंने पशु चिकित्सक तो बहुत देखे पर इनके जैसा कोई नहीं देखा। यह न सिर्फ अत्यंत अव्वल दर्जे के काबिल हैं बल्कि इनके अंदर सेवाभाव वाली काबिलियत भी बड़ी जबरदस्त है बोलते कम हैं किंतु लगन शीलता बहुत ज्यादा है।
खैर अब मैं आगे बढ़ता हूं थोड़ी देर में डॉक्टर पांडे आ गए उन्होंने कुछ इंजेक्शन ग्लूकोज की बोतलें व अन्य जरूरी दवाई मंगाई और अपना काम शुरू कर दिया। इस उपचार के कार्य में हमारे घर वालों ने भी बड़ी मदद की कोई गाय को चढ़ने वाले ग्लूकोस की बोतल लेकर खड़ा रहा कोई गाय के पैरों को पकड़ने लगा। कहने का मतलब है परिजनों ने भी पूरी मदद की। इसके अलावा आसपास के कुछ दयावान लोग भी मदद को आ गए।
रात गहराने लगी फिर भी डॉक्टर पांडे ने कोई परवाह नहीं की तथा फटे हुए पूरे हिस्से को अनगिनत टांके लगाकर ऐसी सिलाई की कि मानो जादू सा कर दिया। सिलाई के दौरान व बाद में गाय बार-बार पैर चलाती थी, इसलिए हम लोगों ने गाय के चारों पैरों को रस्सी से बांध दिया ताकि पैर चलाने पर कहीं टांके न टूट जांय। इसके बाद डॉक्टर पांडे अपने घर चले गए और हम सभी ऊपर आकर सो गए।
सुबह सुबह आकर जो मैंने गाय की स्थिति देखी तो उसे देखते ही बड़ी जबरदस्त कोफ्त हुई। यानी कि हम सभी लोगों के किए कराये पर पानीं फिर गया। क्योंकि चूहों ने सभी टांके कुतर डाले और जैसा काम कुत्तों ने किया कुछ कुछ वैसा ही काम चूहों ने कर डाला। उस समय मेरे ऊपर जो बीती वह मैं ही जानता हूं। अगले दिन वह गाय मर गई।
इस सब घटनाक्रम ने मुझे झकझोर कर रख दिया और ऐसा लगा जैसे मेरे ऊपर बहुत बड़ा वज्रपात सा हो गया क्योंकि सब कुछ किया कराया मिट्टी में मिल गया। इससे अच्छा तो यह रहता कि मैं उस गाय को घर में लाकर उसी कंडीशन में जब तक वह जिंदा रहती सेवा करता रहता क्योंकि खाल में टांके लगने की असहनींय पीड़ा से बच जाती।
यदि मेरे दिमाग में चूहों वाले खतरे की बात जरा भी आ जाती तो भले ही पूरी रात जागकर उसकी रखवाली करनी पड़ती तो भी शायद करता किंतु ईश्वर ने जो कुछ पहले ही तय कर रखा था वही हुआ। आज भी मुझे उस बेचारी गाय की दुर्गति होने का बहुत दुःख है। साथ ही अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर सकने का मलाल भी कम नहीं।