मथुरा। कहते हैं कि जो बच्चे मूल नक्षत्र में पैदा होते हैं, वे खतरे में रहते हैं। इसीलिए मूल शांति का प्रावधान है। मूल शांति की प्रक्रिया बड़ी जटिल होती है। यह भी कहते हैं कि मूलों में जो बच्चे जन्म लेते हैं, वे परिवार के लिए अनिष्टकारी होते हैं। यही कारण है कि उन्हें निकृष्ट माना जाता है।
कुछ लोग ऐसे भी हुए हैं जिन्होंने मूलों में पैदा हुए अपने बच्चों को त्याग दिया, यानी किसी निसंतान को गोद दे दिया। कहने का मतलब है कि मूलों में बच्चे का जन्म लेना न सिर्फ उसके जीवन को खतरा रहता है बल्कि परिवार भी संकटग्रस्त हो जाता है। इस सबके बावजूद भी मैं भगवान से प्रार्थना कर रहा हूं कि मेरा अगला जन्म मूल नक्षत्र में ही हो।
अब बताता हूं कि इसका राज क्या है। इसका राज है मूलचंद गर्ग के अंदर की विलक्ष्णताएं। प्रसंग से हटकर बीच में रुककर एक बात और कह रहा हूं कि जब हम छोटे-छोटे थे तब सुना करते थे कि जनसंघ बड़ी अनुशासित पार्टी है और उसमें संस्कारवान और तपे तपाऐ लोग होते हैं, किंतु अब क्या स्थिति है इसके बारे में मुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है। बस कहना सिर्फ यह है कि मूलचंद गर्ग तो कीचड़ में कमल की तरह हैं। उनके आचार, विचार, संस्कार अनायास ही यह सोचने को मजबूर करते हैं कि यह अनमोल हीरा अब तक लुप्त सा क्यों रहा?
उनकी उम्र ६९ वर्ष है पिछले कुछ समय से ही इनका नाम सुनाई दे रहा है उससे पहले ये गुमनाम से थे। मतलब ६० वर्ष के बाद से ये हल्की-हल्की चर्चा में आऐ जबकि ऐसे अजब गजब के सतयुगी इंसान को तो युवावस्था से ही समाज में चमक जाना चाहिए था ताकि नई पीढ़ी को प्रेरणा मिले और जनसंघ की पुरानी परिपाटी यानी संस्कार वाले तपे तपाऐ लोगों का अस्तित्व भारतीय जनता पार्टी में बना रहे। इसका मतलब यह नहीं कि केवल एक ये ही भाजपा में गुणवान है बाकी सभी निर्गुण हैं, कुछ और लोग भी हैं किंतु तूती महापुरुषों? की बोल रही है अर्थात “जहां पै देखी भरी परात वहीं पर जागे सारी रात” वाली बिरादरी जो साम, दाम, दंड, भेद की विद्या में पारंगत होने के साथ-साथ छुट्ट भलाई के सभी गुणों में पी.एच.डी. किए हुए हों। साथ ही यह भी कहूंगा कि मेरी नजर में आज भी अन्य पार्टियों व संगठनों को देखते हुए भारतीय जनता पार्टी व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बहुत बेहतर हैं।
अब समीक्षा बाजी से हटकर मूल मुद्दे यानी मूलचंद की ओर आता हूं। इनके अंदर कुछ बातें ऐसी हैं जो आज के सफल राजनीतिज्ञों से कतई मेल नहीं खातीं। जैसे ये तिकड़मबाजी करके आगे बढ़ने और अपने को चमकाने से दूर रहकर सिद्धांतों पर डटे रहते हैं। आज भी ये अपने निजी जीवन में अभाव की जिंदगी जी रहे हैं। इन्होंने कभी यह कोशिश नहीं की कि अपने बड़े भाई रविकांत गर्ग के बड़े कद का लाभ लें। इस समय इनके पास न कोई रोजगार है न कोई धंधा। सिर्फ अपने बेटे की स्कूली नौकरी व उसके द्वारा संचालित एक जन सुविधा केंद्र की हल्की-फुल्की आमदनी से पूरे परिवार का गुजारा होता है। बेटा बी.टेक, एम.बी.ए. है, किंतु इन्होंने कभी यह प्रयास भी नहीं किया कि इसे किसी जुगाड़ सुगाड़ से अच्छी सरकारी नौकरी दिलवा दें। अगर चाहते तो यह काम बड़ी आसानी से एक झटके में करा लेते। बेटा भी बड़ा सुपात्र है उसे वे आधुनिक श्रवण कुमार मानते हैं।
अब बात आती है पत्नी की। ये अपनी पत्नी श्रीमती शशि गर्ग की प्रशंसा करते नहीं थकते और कहते हैं कि वह तो साक्षात गृह लक्ष्मी है। मुझे मजाक सूझी और पूछा कि सुबह उठकर अपने घर में विराजमान लक्ष्मी जी के पैर छूते हो क्या? तो वे बड़े सरल भाव से बोले कि मानसिक रूप से छू लेता हूं। मैंने कहा कि प्रैक्टिकल में भी कभी-कभी छू लिया करो, तो बोले कि प्रैक्टिकल में साल में एक बार छूता हूं। मैंने पूछा कि कब? तो बोले कि करवा चौथ के दिन। खैर यह तो हास परिहास की बात है और सचमुच में छू भी लेते हों तो कौन सा महापाप हो गया। वे पत्नी को नहीं उनके सद्गुणों को नमन करते हैं।
इस समय ये रामलीला सभा के महामंत्री हैं तथा पिछले से पिछले नगर निगम चुनावों में बड़े बहुमत से पार्षद चुनकर डिप्टी मेयर बने। पार्षद भी पार्टी के लोगों ने जोर जबरदस्ती बनवाया। उस समय इन्होंने दबाव के चलते बड़े भाई रविकांत गर्ग का आशीर्वाद लेकर चुनाव लड़ तो लिया किंतु साफ कह दिया कि फिर आगे नहीं लडूंगा। इसके बाद पिछले चुनाव में वायदा निभाया और आखिरकार दुबारा चुनाव लड़ा ही नहीं। इनके परिवार में तीन बेटी और एक बेटा है। सभी की शादी हो गई। बाप बेटे में कोई व्यसन नहीं यहां तक कि गुटखा सुपारी तक से परहेज है। पूरे परिवार का जीवन सात्विक रहता है।
इस समय ये हेमा मालिनी के केंद्रीय चुनाव कार्यालय के प्रभारी हैं। यह जिम्मेदारी जनपद और प्रदेश के वरिष्ठ पदाधिकारियों की सहमति से इन्हें सौंपी गई क्योंकि इनके नाम पर किसी ने विरोध नहीं किया, हेमा मालिनी भी इन्हें विशेष सम्मान देती हैं। हेमा मालिनी और इनके अंदर एक समानता है। वह यह कि दोनों ही उम्र को गच्चा दे रहे हैं। कल्याणं करोति में लंबे समय से ये सचिव हैं तथा गरीब और असहाय पीड़ितों की सेवा में विशेष रूचि रखते हैं।
सन् ७८ में इन्होंने बी.एस.सी. की तथा बाद में लॉ की पढ़ाई पढ़ी पर पारिवारिक परिस्थितियों के कारण पूरी नहीं कर पाये। इसके बाद होली गेट स्थित अपने पिताजी स्व. श्री भगवान दास गर्ग उर्फ भग्गो पंसारी की दुकान पर अपने पिता व बड़े भाई रविकांत गर्ग का हाथ बंटाया। आगे चलकर अल्प राशि से साड़ी छपाई का कारोबार शुरू किया किंतु बड़े कारोबारियों के आगे टिक नहीं पाये। फिर वृंदावन में लेमिनेशन की छोटी सी दुकान की वह भी नहीं चली उसके बाद जन्मभूमि पर एक रेस्टोरेंट खोला वह भी नहीं चला। अब बेटे की कमाई पर पूरे परिवार की गाड़ी चल रही है। भले ही ये आर्थिक दृष्टि से कमजोर हों किंतु अपने को ख़रब पति मानते हैं और कहते हैं कि जो आनंद सुख शांति में है वह धन कुबेर होने में कहां?
आजकल भूतेश्वर स्थित साधारण लोगों की बस्ती में अपने साधारण से मकान में मध्यम श्रेणी के स्तर से हंसी-खुशी की जिंदगी जी रहे हैं। इनके जीवन की एक घटना मुझे पता चली जिसे बताए बगैर नहीं रहा जा रहा। एक बार इन्हें अपने कारोबार के लिए आर्थिक जरूरत पड़ी किंतु इनकी हालत पतली थी। इन्होंने बोहरों से ब्याज पर पैसे मांगे पर मिले नहीं। यह बात इन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु स्व. गोपेंद्र मोहन आचार्य को बताई इनके गुरु को इनका दुःख नहीं देखा गया। उन्होंने अपनी पत्नी के गहने गिरवी रखकर पैसे ब्याज पर लिए और इनका काम चलाया। मूलचंद जी कहते हैं कि गुरुजी केवल हमारे आध्यात्मिक गुरु ही नहीं संरक्षक और अभिभावक भी थे। उन्होंने हर कदम पर हमारी रक्षा ही नहीं की बल्कि सुसंस्कार भी दिये। आज उन्हीं की वजह से मैं खाक पति होते हुए भी अपने को खरब पतियों से भी अधिक धनपति महसूस करता हूं।
मूलचंद जी का पूरा जीवन संघर्ष मयी रहा है। सिद्धांतों से इन्होंने कभी समझौता नहीं किया। वे एकदम नपा तुला व सटीक बोलते हैं और सामने वाला उनकी बात को काट नहीं पाता। मेरा मानना है कि भा.ज.पा. व आर.एस.एस. संगठन को इस अनमोल हीरे “मूल” के मूल्य को अधिक से अधिक भुनाना चाहिए ताकि पुराने जनसंघ की झलक के लोगों की झलक झलकती रहे।
विजय गुप्ता की कलम से