मथुरा। बालकपन से ही मेरा स्वभाव उत्पाती और दुस्साहसी रहा है। अपने उत्पाती और दुस्साहसी पन की एक बानगी बताने का मन है। घटना इमाम बुखारी के साथ की है, जब मैंने उन्हें एक नहीं, दो नहीं बल्कि तीन बार नोंचा। भगवान की ऐसी कृपा रही कि सैकड़ों लोगों के मध्य तीन तीन बार नौंचने के बावजूद किसी को भनक भी नहीं लगी कि यह कुकृत्य मैंने किया है और पिटाई से साफ बच गया।
बात उस समय की है जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल हटाकर चुनाव करवाये। उसी दौरान मथुरा में चुनावी सभाओं का दौर चल रहा था। मैं भी उन हस्तियों को देखने और सुनने जाया करता था जिनके समाचार व फोटो अक्सर अखबारों में देखता था। एक बार दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी भी आऐ जो उस दौरान आये दिन नित नए फतवे जारी करके चर्चाओं में बने रहते थे। रात्रि का समय था इमाम बुखारी भगत सिंह पार्क के मंच पर दहाड़ और चिंघाड़ रहे थे तथा इंदिरा गांधी को जी भर के कोसते हुए भली बुरी खरी-खोटी यानीं जो मुंह में आ रहा था बेलगाम बोले जा रहे थे।
चूंकि मैं इंदिरा गांधी द्वारा लगाऐ गये आपातकाल का मुरीद था, क्योंकि आपातकाल में देश अनुशासित और भ्रष्टाचार रहित होकर तीव्र गति से आगे बढ़ रहा था, भले ही गलतियां और ज्यादतियां भी हुईं जिसका खामियाजा इंदिरा गांधी और संजय गांधी ने बुरी तरह पराजित और अपमानित होकर भुगता भी। मैं उन दिनों इंदिरा गांधी के विरुद्ध कुछ भी सुनने को तैयार नहीं रहता यानीं कि एक प्रकार से इंदिरा भक्त था। इसका कारण आपातकाल का स्वर्णिम दौर (मेरी नजर) में तो था ही साथ में मेरा स्वभाव है कि जहां तक हो सके गिरते समय में किसी को नहीं लतियाना चाहिए।
इमाम बुखारी द्वारा इंदिरा गांधी के विरुद्ध काफी देर तक आग उगलते रहना मुझे इतना नागवार गुजरा कि मैंने उसी क्षण इमाम साहब को मजा चखाने की ठान ली। लोग इमाम साहब के विषैले भाषण का अमृत की तरह रसपान करने में तल्लीन थे और बार बार तालियां बजाकर उनका उत्साहवर्धन भी करते जा रहे थे। मैंने आव देखा न ताव और मंच के कोने पर लगी बल्ली, जिस पर शामियाना बना हुआ था, के द्वारा बंदर की तरह ऊपर मंच पर चढ़ गया किसी ने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया और मैं भाषण समाप्त होने का इंतजार करने लगा। भाषण जो करीब एक घंटे तक चला होगा, उसके मध्य इमाम साहब बार-बार अपनी बैंत नुमा छड़ी को ऊपर उठाते और फिर नींचे खींच कर कहते कि इस इंदिरा को तो मैं उसके सिंहासन से ऐसे खींच लूंगा। मुझे उनका यह रिहर्सल भी बेहद खटक रहा था।
खैर जैसे ही भाषण समाप्त हुआ इमाम साहब मुड़े और मंच से सिढ़ियों की तरफ बढ़े ही थे कि मैंने उनके चारों ओर घिरे नेताओं की भीड़ में घुसकर उनकी गुदगुदी कमर पर नौंच लिया और झट से बाहर निकल आया तथा एक साइड में उनकी ओर पीठ करके खड़ा हो गया और बीच-बीच में सिर घुमा कर उस नजारे को भी देख लेता। अपनी कमर पर नौंचने की पीड़ा होते ही वे बोले कि “ये कौन चिउटी काट रहा है”? इसके बाद वे दो चार कदम आगे बढ़े कि मैं रात्रि के अंधेरे का लाभ उठाकर फिर उस झुंड में घुस गया तथा दुवारा नौंच डाला और फिर चालाकी से बाहर निकल आया।
अबकी बार इमाम साहब तो बहुत गुस्सा हो गए और बोले कि “फिर काट ली चिउटी कौन है ये बदतमीज? सब लोग हक्के बक्के से एक दूसरे का मुंह देखने लगे कि आखिर माजरा क्या है। शायद वे सोच रहे होंगे कि उन्हीं लोगों में से ही कोई शरारत कर रहा होगा। खैर कुछ क्षण ये अजीबो गरीब स्थिति बनी रही उसके बाद फिर यह झुंड दो चार कदम आगे बढ़ा और सीढ़ियां उतरने से पहले जोर-जोर से इमाम बुखारी जिंदाबाद, इमाम बुखारी जिंदाबाद तथा हमारा नेता कैसा हो इमाम बुखारी जैसा हो, के नारे और जयकारे लगने लगे।
इन नारों और जयकारों तथा इमाम साहब को निकट से देखने की होड़ में भीड़ का दबाव ज्यादा हो गया जो मेरे लिए बड़ा लाभकारी रहा। मैंने आव देखा न ताव और उस झुंड में पुनः घुसकर बड़े जोर से उसी गुदगुदी जगह पर फिर नौंच डाला और पहले की तरह वहां से खिसक लिया। इसके बाद मैं कुछ ज्यादा दूर जाकर चुपचाप तमाशा देखने लगा। इमाम साहब ऐसे आग बबूला हो गए कि पूंछो मत और चिंघाड़ने लगे कि “यह कौन नालायक है जो बार-बार चिउटी काटे जा रहा है? सब लोगों की दशा यह कि काटो तो खून नहीं। इमाम साहब उन्हीं पर विफर रहे थे क्योंकि उन्हें भी इन्हीं पर शक हो रहा होगा। उनके साथ उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा व अन्य कई बड़े नेताओं के अलावा लगभग सभी विरोधी पार्टियों के बड़े-बड़े स्थानींय नेता भी थे। इमाम साहब गुस्से में इतने लाल पीले हुऐ कि इंदिरा गांधी को भूल अपने इर्द गिर्द चल रहे नेताओं को खरी-खोटी कहने लगे।
इस दौरान मुझे बड़ा मजा आ रहा था तथा डर भी लग रहा था कि कहीं पकड़ा न जाऊं। लगभग आधा या अधिकतम एक मिनट यही घौंच पौंच रही और फिर वही पहले जैसा ढर्रा चल निकला, यानीं कि इमाम साहब के जयघोषों और भीड़ की बाढ़ ने पुनः अफरा तफरी जैसी स्थिति पैदा कर दी। इमाम साहब और बाकी नेतागण जैसे ही सीढ़ियों से उतरने को हुए मैंने मौके का फायदा उठाया तथा झट से उस रेले में घुसकर फिर तीसरी बार नौंच डाला और पहले की तरह दांऐ बांऐ हो गया। इसके बाद तो इमाम साहब बुरी तरह बिफर गए तथा छड़ी को ऊपर उठाकर चिल्लाने लगे कि कौन गधा, पाजी, नालायक है मैं उसे छोडूंगा नहीं आदि आदि।
मुझे उनकी पूरी शब्दावली तो याद नहीं किंतु कुछ इसी प्रकार की भाषा का वे इस्तेमाल कर रहे थे। उन्होंने कसर छोड़ी तो सिर्फ इस बात की कि उनके इर्द-गिर्द चल रहे नेताओं में अपने हाथ में लगी छड़ी नहीं जड़ी वर्ना खरी-खोटी कहने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। इसके बाद सभी नेताओं ने एक नया तरीका अपनाया जो सफल रहा। उन सभी ने एक दूसरे का हाथ पकड़कर एक बड़ा घेरा बनाया और उस घेरे के मध्य में इमाम साहब छड़ी लिए दूल्हे की तरह चलकर अपनी लग्जरी कार तक पहुंचे। हाथ पकड़ कर घेरा बनाने वालों में हेमवती नंदन बहुगुणा भी थे।
चौथी बार मेरी हिम्मत जवाब दे गई यदि में कमांडो घेरे को तोड़कर पुनः चिउटी काटने की हिमाकत करता तो गारंटी से पकड़ा ही नहीं जाता बल्कि सबसे पहले तो इमाम साहब अपनी छड़ी से मुझे रुई की तरह धुन डालते और अपनी लग्जरी गाड़ी की डिग्गी में डालकर साथ ले जाते तथा जामा मस्जिद की एक कोठरी में मेरी बाकी की जिंदगी गुजरती। यही नहीं रोजाना इमाम साहब आकर उस छड़ी से मेरा अभिनंदन करते हुए कहते हैं कि काफिर ले मजा चिउटी काटने का। अब जब भी मैं उस घटना को याद करता हूं तो अपने दुस्साहस से स्वयं सिहर उठता हूं।
यदि उस समय मंच पर उपस्थित नेताओं में कोई जीवित हों तो शायद उन्हें यह वाकया जरूर याद होगा। उस समय भगत सिंह पार्क में जो नजारा मैंने देखा था, वह आज भी मुझे बड़ी हैरत में डाल देता है, यानीं कि इंदिरा कांग्रेस को छोड़कर बाकी सभी दल जनसंघ, कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व मुस्लिम लीग आदि सब ऐसे एकजुट हो गए जैसे सगे मांजाऐ भाई हों। भला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व जनसंघ का मुस्लिम लीग से क्या तालमेल यानीं कि सांप और नेवले की दोस्ती हो गई। ये सब आपातकाल व इंदिरा गांधी के खिलाफ एकजुट हो गए थे।
मुझे अपने दुष्कृत्य के लिए बड़ी शर्मिंदगी महसूस हो रही है तथा अब मैं जन्नत में रह रही इमाम साहब की आत्मा (रूह) से शीश झुकाकर कान पकड़कर अपनीं गलती के लिए क्षमा प्रार्थना करता हूं। आशा है उन्होंने मुझे क्षमा कर दिया होगा यह सोच कर कि उस समय तो यह नादान नाबालिग बालक था। अब मुझे पूर्ण विश्वास हो चला है कि मेरा माफीनामा जरूर स्वीकार कर लिया गया होगा और इमाम साहब कह रहे होंगे कि कबूल है, कबूल है, कबूल है।
विजय गुप्ता की कलम से