मथुरा। हम बचपन से सुनते आऐ हैं बिल्ली को मौसी और बंदर को मामा कहते हुए। यह तो पता नहीं कि बिल्ली और बंदर को मामा और मौसी का दर्जा क्यों मिला है किंतु एक बार हमने एक बिल्लो मौसी को कुएं से बड़े जतन से बाहर निकाला यह किस्सा है तो बहुत पुराना किंतु बड़ा रोचक है।
दरअसल मुझे कुऐ से बिल्ली को निकालने की बात फेसबुक पर चलाने की उचंग इसलिए सूझी कि पिछले कई दिन पूर्व मैंने राजस्थान की एक घटना अखबार में पढ़ी जिसमें तीन चार वर्ष का एक बालक समर्सिबल के बोरिंग में गिर गया और पूरा दिन बीत जाने के बाद भी सरकारी तंत्र उसे निकालने में विफल रहा किंतु उस बालक के पिता जो निपट अनपढ़ और सीधे-साधे व्यक्ति थे, इसके बावजूद उन्होंने अपनी देहाती तरकीब से बच्चे को बाहर निकाल लिया।
बच्चे के पिता ने तीन पाइपों को रस्सी में पिरो कर जमीन के अंदर डाला और पता नहीं कौन सी तिकड़म इस्तेमाल की और बच्चा बाहर आ गया। न तो मुझे यह ध्यान है कि राजस्थान के कौन से जिले का मामला था और ना ही यह ध्यान कि उस देहाती किंतु वैज्ञानिक मस्तिक वाले पिता का नाम क्या था किंतु मुझे अपनी कारिस्तानी याद है जो शायद बीस पच्चीस साल पुरानीं है।
हमारे घर के पिछवाड़े में सिंधी धर्मशाला है। उसके अंदर एक सूखा कुआ था। उस कुऐ में एक बिल्ली गिर गई और कई दिन से म्याऊं म्याऊं चिल्ला रही थी। धर्मशाला के लोगों ने मुझसे संपर्क किया तथा कहा कि इसे कैसे भी निकलवाओ वर्ना बिल्ली के मरने का पाप हम लोगों पर चढ़ेगा। कहते हैं कि बिल्ली की भूल चूक में भी मौत हो जाय तो उसकी हत्या का पाप बड़ा भयंकर होता है और उससे मुक्त होने के लिए सोने की एक बिल्ली बनवाकर दान करनी पड़ती है।
जैसे ही मुझे बिल्ली के कुऐ में गिरने वाली इस बात का पता चला तो मैं अपने कर्मचारियों को लेकर पहुंच गया। चूंकि कुऐ में उतरने चढ़ने का कोई साधन नहीं था, इसलिए हमने एक डलिया को तीन ओर से रस्सी से बांधा और उसे यह सोच कर नींचे उतारा कि बिल्ली उसमें बैठ जायगी और हम उसे ऊपर खींच लेंगे। किंतु हमारा यह सोचना गलत रहा गहरे कुऐ में जब हमने डलिया को उतारा और बड़ी टॉर्च की रोशनी में देखते रहे कि जैसे ही बिल्ली डलिया में बैठेगी हम तुरंत उसे खींच लेंगे, लेकिन प्रयोग असफल रहा यानीं कि बिल्ली डलिया में आई ही नहीं।
इसके बाद फिर दूसरी तरकीब लगाई। डलिया में दूध का कटोरा रखकर उतारा ताकि जब बिल्ली दूध पीने को डलिया में चढ़ेगी तब हम उसे खींचकर निकाल लेंगे। हमारी यह तरकीब भी फेल हो गई क्योंकि बिल्ली दूध पीने को तो डलिया में चढ़ गई किंतु जब हम उसे ऊपर खींचते तो झट से नींचे कूद जाती। माथापच्ची करते करते कई घंटे बीत गए किंतु सफलता नहीं मिली शाम हो गई और हम हार झक मार कर लौट आऐ किंतु मुझे चैन नहीं और बार-बार दिमाग कुऐ और बिल्ली में लगा रहा। मैं बार-बार भगवान से प्रार्थना करता रहा कि हे प्रभु कैसे भी इस बिल्ली को बाहर निकलवाओ वर्ना यह तो मरेगी जो मरेगी इसके वियोग में भले ही मैं मरूंगा तो नहीं पर अधमरा जरूर हो जाऊंगा।
खैर मेरी प्रार्थना भगवान ने सुन ली और एक जबरदस्त युक्ति उन्होंने ऊपर से छोड़ दी जो मेरे दिमाग में आकर बैठ गई। मैंने एक टाट की बड़ी बोरी तथा लोहे की एक लंबी सरिया ली, और उस सरिया को गोलाई में मोड़कर बोरी के किनाठे पर सिल दिया। इसके बाद डलिया की तरह उसे तीन ओर से रस्सी द्वारा बांध दिया तथा बोरी की तली में चौड़े से कटोरे में दूध रख दिया फिर उसे धीरे-धीरे कुऐ में उतारा। जैसे ही बोरी जमीन से लगी तो दूध का कटोरा भी जमीन पर टिक गया तथा और ढील देने पर लोहे की सरिया का घेरा भी उसी तरह जमीन पर टिक गया।
यह सब नजारा हम लोग टाॅर्च की रोशनी में बड़ी उत्सुकता और व्यग्रता से देख रहे थे। जैसे ही सरिया का बजनी हिस्सा जमीन पर टिका तो दूध का कटोरा भी चमकने लगा और बिल्ली उसे पीने लगी। बस इसी क्षण का तो इंतजार था, खट से हमने रस्सी को ऊपर खींच लिया और बिल्लो मौसी बोरी में कैद करके बाहर निकाल लीं गईं। जैसे ही बिल्लो मौसी कुऐ से बाहर निकलीं वहां मौजूद काफी सारे लोग हर्षित हो उठे तथा तालियां बजने लगीं। यह क्षण मेरे लिए कितनी खुशी लेकर आया होगा इसकी कल्पना की जा सकती है।
बिल्ली से जुड़ी दूसरी घटना और बताता हूं। यह भी शायद पन्द्रह बीस वर्ष पुरानीं होगी। एक बार एक बिल्ली भिवानी वाली धर्मशाला के सूखे कुऐ में गिर गई लोगों ने मुझे सूचित किया कुआ बहुत गहरा था किंतु अच्छी बात यह थी कि उसमें उतरने चढ़ने के लिए लोहे की सीढ़ियां थीं। मेरी तो हिम्मत इतनीं थी नहीं कि खुद कुऐ में उतर जाऊं किंतु निकट में गोपालपुरा के एक युवक को इस कार्य के लिए भरपूर मेहनताना देकर तैयार कर लिया। वह युवक टाट की एक बोरी लेकर कुऐ में उतरा तथा अपने जतन से बिल्ली को उसमें कैद करके बाहर ले आया।
लगे हाथ बिल्लो मौसी से जुड़ी इसी दरमियान की तीसरी घटना भी बताए बगैर नहीं रहा जा रहा है। भिवानी वाली धर्मशाला में ही सड़क किनारे एक बड़ा हाल लुमा गैरेज था जिसमें आगरा होटल के मालिक स्व. रजनीं दत्ता की कार खड़ी होती थी। कार के साथ-साथ होटल का कबाड़ा भी उसी गैरेज में भरा जाता था। कबाड़े का ढेर हाथी से कुछ ही कम ऊंचाई का था। एक बार एक बिल्ली गैरेज में घुसकर कबाड़े में दुबक गई। रजनीं बाबू ने अपनी कार को कुछ दिन तक बाहर नहीं निकाला और गैरेज बंद रहा, तो बिल्ली की म्याऊं म्याऊं से आसपास के लोगों का ध्यान खिंचा और वे मेरे पास आऐ। मैंने तुरंत रजनीं बाबू के पास संदेश भिजवाया वे बहुत भले इंसान थे अतः तुरंत भागे भागे आये। मैंने अपने कर्मचारियों से बिल्ली को निकलवाने की कोशिश की किंतु बिल्ली बाहर नहीं आई।
फिर हमने दूसरी तरकीब इस्तेमाल की यानीं कि उस पूरे कबाड़े को उठा उठा कर दूसरी ओर रखा ताकि बिल्ली निकल आये किंतु घंटों की मशक्कत बेकार गई क्योंकि बिल्ली एक ढेर में से निकल कर दूसरे ढेर में घुस गई। मुझे बड़ी कोफ्त हुई किंतु में भी बिल्ली से हार मानने वाला कहां था। मैंने मन ही मन सोचा कि देखता हूं तू जीतती है या मैं? इसके बाद हम सब लोगों ने पूरे कवाड़े को बाहर सड़क पर निकालकर पटकना शुरू कर दिया। करीब एक घंटे की मशक्कत के बाद कबाड़ा जैसे ही अंतिम चरण में पहुंचा और बिल्ली के छुपने की कोई गुंजाइश नहीं रही तो फिर वह क्षण भर में छलांग लगाकर सड़क पर भाग गई और जीत का सेहरा हमारे माथे बंधा।
एक बार ऐसा भी हुआ कि मुझे एक बिल्ली को पकड़ कर न सिर्फ उसकी पिटाई करनी पड़ी बल्कि बोरे में बंद करके यमुना के उस पार जंगल में छुड़वाना पड़ा। दरअसल एक बिल्ली हमारे यहां पल रहे एक दो अपाहिज कबूतरों की हत्या कर बैठी। मुझे यह बड़ा नागवार गुजरा। मैंने उसे बड़ी मुश्किल से कई लोगों की मदद से पकड़कर एक बोरी में बंद करके न सिर्फ उसकी पिटाई की बल्कि पल्लीपार जंगल में छुड़वा दिया।
भले ही बिल्ली ने कबूतरों की हत्या अपने स्वभावानुसार की क्योंकि बिल्ली का तो जन्मजात स्वभाव ही यह होता है। वह अपना मूल स्वभाव नहीं छोड़ सकती ठीक उसी प्रकार मेरा भी बचपन से जो स्वभाव है उसे मैं कैसे छोड़ सकता हूं? मैं अपने मूल स्वभाव को बिल्ली वाले स्वभाव से बड़ा मानता हूं क्योंकि कहते हैं कि “मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है” अतः हम सभी को मारने वाली नींच श्रेणीं का नहीं बचाने वाली श्रेष्ठ श्रेणीं का बनना चाहिए क्योंकि हम बिल्ली नहीं इंसान हैं।
विजय गुप्ता की कलम से