मथुरा। बात सन 1980 की है मार्च का महीना था। शायद होली के आसपास का समय रहा होगा। बिहार के जिला पूर्वी चम्पारण के एक दो लोग बदहवास सी हालत में इधर-उधर भटक रहे थे। उनका छोटा भाई जो किशोर उम्र का था घर से गुस्सा होकर कुछ दिन पूर्व निकल आया था। उसका कहीं कोई अता पता नहीं लगने पर घरवाले बिहार और उत्तर प्रदेश भर के शहरों की खाक छानते हुये भटकते फिर रहे थे।
किसी प्रकार उनका सम्पर्क मुझसे हो गया। मैंने उनके भाई का फोटो लेकर समाचार न सिर्फ अपने “आज” अखबार में छपवाया बल्कि अमर उजाला वालों से भी विशेष आग्रह करके उस समाचार को सचित्र छपवाया। संयोग ऐसा हुआ कि अमर उजाला में देखकर उक्त बालक को फिरोजाबाद के किसी होटल में काम करते हुऐ पहचान लिया गया। जिस व्यक्ति ने उसे पहचाना उसने तुरन्त अमर उजाला के फिरोजाबाद संवाददाता को सूचित किया। फिरोजाबाद संवाददाता ने मथुरा के प्रतिनिधि को सूचना दी और फिर वह सूचना मेरे पास आयी।
मैंने तुरन्त उसके घर वालों को यह बात बताई तथा पुलिस को भी सूचित किया। इसके पश्चात मुझे कुछ ऐसा महसूस हुआ कि उक्त किशोर के घर वालों के पास शायद खर्च हेतु पैसे निपट गये, या कम पड़ रहे हैं। मैंने उनसे कहा कि आप लोग पैसों की चिन्ता मत करो जितनी भी जरूरत हो पैसे मुझसे लो और तुरन्त फिरोजाबाद के लिए रवाना हो जाओ।
मेरे द्वारा पैसों का बंदोबस्त कराने की बात पर वह एकदम हक्के वक्के रह गये तथा बार बार कहने पर भी उन लोगों ने एक पैसा भी नहीं लिया तथा पुलिस को लेकर तुरन्त रवाना हो गये। फिरोजाबाद में अपने बच्चे को पाकर उन्हें जो खुशी मिली होगी उसको शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। शायद उतनी तो नहीं किन्तु उससे कुछ कम ही सही, पर मुझे भी जो खुशी मिली उसको भी ज्यादा कमतर करके नहीं आंका जा सकता क्योंकि मेरी खुशी इस बात के लिए अधिक थी कि मेरा प्रयास सार्थक हुआ।
इससे भी कहीं बड़ी खुशी मुझे एक अंतरदेशी पत्र पाकर मिली जिसमें उक्त बालक के परिवारी जनों की ओर से खासतौर से उस मां की ओर से जिसके कलेजे का टुकड़ा उसे वापस मिल गया था, जो ममतामयी एवं वात्सल्यता से लबालब दुआएं मिलीं वे आज भी मेरा संबल बनी हुई हैं। इस अंतरदेशी पत्र को जब मैंने पढ़ा तो मेरी आंखें भी डबडबा उठीं। पढ़ना तो दूर जब जब इस पत्र की कल्पना करता हूं तब तब भले ही आंखें डबडबाती न हों किन्तु आंखों की नमी रोके नहीं रुकती।
इस पत्र के कुछ मार्मिक अंश प्रस्तुत कर रहा हूं। “आदरणीय गुप्ता जी आपने मुझे जो सहयोग दिया उसके लिए मैं और मेरा परिवार आपका आजीवन आभारी रहेगा। हमारी माता जी का आशीर्वाद हमेशा आपके साथ रहेगा। आपने निस्वार्थ भाव से मेरे जैसे अनजान और अपरिचित व्यक्ति की जो मदद की वह अपने आप में बेमिसाल है। मेरा पूरा परिवार गदगद और आल्हदित है। सभी लोग आपके सहयोग की प्रशंसा कर रहे हैं। मेरा पूरा परिवार आपको आशीर्वाद दे रहा है। इस दुनिया में ऐसा कौन होगा जो आप जैसे महान इंसान को भूल सकता है। आप तो मुझे किराया भाड़ा भी देने को तैयार थे”।
पत्र में नरेन्द्र मिश्र नामक व्यक्ति ने अपनी मां की ममतामयी एवं वात्सल्यता पूर्ण दुआओं का हवाला देते हुए उनके आशीर्वाद का जो जिक्र किया उस मां का वह आशीर्वाद आज भी मुझे अप्रत्यक्ष रूप से न सिर्फ शक्ति प्रदान करता है बल्कि मेरा संबल भी बना हुआ है। कहने का मतलब यह है कि यदि हम बगैर किसी प्रति उपकार की भावना के वशीभूत हुये किसी का उपकार करें तो उसके अलौकिक आनन्द की जो अनुभूति होती है, उसका कोई ओर छोर नहीं होता। वह अनुभूति तो अकल्पनींय और अवर्णनींय होती है।
विजय गुप्ता की कलम से