मथुरा। विगत दिनों मैं अमर उजाला को उलट पलट रहा था कि अचानक मेरी नजर “मुखड़ा क्या देखे दर्पण में” स्तंभ पर पड़ी जिसका शीर्षक था “दुनियां बड़ी झूठी है इससे संतोष नहीं होता” यह लेख मुझे बहुत अच्छा लगा। बल्कि यौं कहूं कि बहुत लंबे समय बाद मुझे मेरे मनपसंद लेखन पढ़ने को मिला तो भी ठीक है। इसकी कटिंग मैंने अपने लेख के साथ भी डाल दी है। मेरा सभी से आग्रह है कि आप लोग भी जरूर पढ़ें। मेरा मानना है कि सच और झूठ का फर्क ठीक उसी प्रकार का है जैसे अमृत और विष। इंसान की गति तभी होती है जब वह जीवन पर्यंत सच्चाई पर डटा रहे तभी तो अंतिम यात्रा के समय जब लोग कंधे पर अर्थी को ढोते हैं तब उनके मुंह से यही निकलता है “राम नाम सत्य है सत्य बोलो गत्य है” सत्य बोलो गत्य है, क्या यह सिर्फ मुर्दे को ढोने वाले क्षणों का ही जाप है? नहीं कतई नहीं। यह तो अपने जीवन में आत्मसात करने वाला वह मंत्र है जिससे लोक और परलोक दोनों ही सुधरते हैं। पता नहीं क्यों बात बात पर झूठ, बात बात पर झूठ और तो और बिना बात पर भी झूठ ही झूठ का ऐसा वाहियात फैशन सा चल निकला है कि इस झूठी दुनियां से ही मुझे बेहद नफरत होने लगी है।
मैंने अपने पिताजी के सद्गुण तो नहीं सीखे किंतु इतना तो दावे के साथ कह सकता हूं कि उनकी कभी झूठ न बोलने वाली पूरी आदत तो नहीं है पर हां, यथासंभव झूठ से ठीक उसी प्रकार बचकर चलने का प्रयास जरूर करता हूं जैसे पुराने जमाने में सवर्ण लोग शूद्रों से छिबने से बचते थे। मैंने तो यहां तक देखा था कि यदि सफाई कर्मी की परछाई भी किसी वैष्णव पर पड़ गई तो सबसे पहले घर आकर नहाना व कंठी जनेऊ बदलना जरूरी होता था।
हम लोग बड़े चाव से सत्यनारायण की कथा कराते हैं। तमाम तामझाम के साथ सत्यनारायण भगवान की पूजा होती है। पंजीरी और चरणामृत का भोग लगता है और पत्ते से बनी दोनीं को माथे से लगाकर प्रसाद ग्रहण कर अपने को धन्य करते हैं किंतु पूरा का पूरा जीवन भगवान सत्यनारायण के सत्य वाले सिद्धांत से दूर रहकर बिताते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि मैं सत्यनारायण की कथा का विरोधी हूं बल्कि मुझे तो घर में कथा होना बड़ा ही सुखद लगता है। झूठे लोगों का यह ढोंग तो मुझे ऐसा लगता है जैसे एक ओर तो सत्यनारायण भगवान को खुश करने के लिए कथा कीर्तन और भोग रास लग रहा है व शंख तथा घंटे की ध्वनि वातावरण में गूंजती है। दूसरी ओर झूठ का सहारा लेकर अपना जीवन व्यतीत किया जाता है। झूठ का आसरा लेकर भले ही हम खुश होते रहे किंतु यह एकदम खरी बात है कि झूठ का सहारा इंसान को ऐसा बेसहारा बना कर छोड़ देता है कि उसकी गति धोबी के गधे जैसी हो जाती है न घर का न घाट का।
सबसे बड़ा दंड तो यह मिलता है कि झूठ बोलने से आत्मा दुर्लभ होती है यानी आत्मबल कमजोर पड़ता है। यह मेरा निजी अनुभव भी है। कई बार मैंने महसूस किया है कि बातचीत में यदि शब्दों के उच्चारण में थोड़ा भी दाएं बाएं होते ही ऐसा लगता है कि हमारा कुछ नुकसान हो गया है अर्थात मानसिक परेशानी सी होती है। दूसरी बात यह भी है कि एक झूठ को छुपाने के लिए बार-बार झूठ और बोलना पड़ता है किंतु फिर भी वह छिपता नहीं और झूठ की गठरी का बोझ बढ़ता ही चला जाता है।
तकरीबन 20-25 वर्ष पहले एक झूठ मैंने ऐसा बोला जो आज भी बजाय मन को कष्ट देने के सुकून देता है। दरअसल बात यह थी कि एक बंदर जो करंट से बुरी तरह झुलस गया था उसे मैंने अपने घर में रख कर 10-15 दिनों तक सेवा की। जब वह ठीक हो गया तो उसे छोड़ दिया। बंदर घर से बाहर निकलते ही बिजली के खंबे पर चढ़ गया। जिस समय वह खंबे के शिखर पर चढ़ा उस समय बिजली नहीं थी थोड़ी देर बाद बिजली आ गई। बिजली आने के बाद जैसे ही वह नींचे उतरने लगा तो उसे करंट का झटका लगा और फिर वह ऊपर की ओर चढ़ गया।
यह सब देख मेरा कलेजा धक्क सा रह गया। मुझे लगा कि थोड़ी बहुत देर में जब बंदर फिर नींचे उतरने लगेगा तब फिर उसे बिजली के तार पकड़ लेंगे और मेरे सारे किए कराए पर पानीं फिर जाएगा। या तो वह मर जाएगा अथवा झुलस कर नींचे आ गिरेगा और फिर मुझे पुन: उसकी चाकरी में लग जाना पड़ेगा। तभी मुझे एक युक्ति सूझी और मैंने बिजलीघर फोन मिलाकर कहा कि जल्दी से लाइन बंद करो एक आदमी बिजली के खंबे से चिपक गया है।
मेरे मुंह से यह बात निकलते ही ड्यूटी पर मौजूद कर्मचारी ने आव देखा और न ताव, झट से बिजली बंद कर दी उसके बाद हम लोगों ने लंबे डंडे से उस बंदर को बड़ी मुश्किल से नींचे उतारा तथा बिजलीघर पुनः फोन करके कहा कि अब बिजली चालू कर दो आदमी बच गया। यदि मैं उस कर्मचारी से कहता कि बंदर को बचाने के लिए बिजली बंद कर दो तो शायद वह एक झटके से बिजली बंद करने के बजाय यह कहता कि अरे बंदर तो मरते ही रहते हैं। इन्होंने तो बड़ा आतंक मचा रखा है आदि आदि। कहने का मतलब है कि यदि किसी परमार्थ के निमित्त हमें झूठ बोलना पड़े तो शायद वह झूठ बजाय पाप के पुण्य में बदल जाता है।
बचपन में तो मैं झूठ बोलकर अपना उल्लू सीधा करने में माहिर था। घर से जाता स्कूल के लिए और पहुंच जाता नानी या बुआ के घर तथा छुट्टी के टाइम पर वापस घर आ जाता। कभी-कभी बस्ते को इधर-उधर रखकर अंटा गोली खेलने या पतंग लूटने में मगन हो जाता। एकाध बार तो ऐसा भी हुआ कि पिताजी के पैसों में से चोरी करके खाने पीने की चीज खा लेता। घरवाले पूंछते कि पैसे कहां से आए तो कह देता कि सड़क पर पड़े मिले। हमारी माता जी मेरी इन खुराफातों से बहुत गुस्सा होती। मार भी पड़ जाती और हाथ पैर बांध कर बैठा दिया जाता। मैं अपने दांतो से हाथ की रस्सी को खोल कर उसके बाद फिर पैरों को खोल कर भाग जाता। इसके बाद हाथ पीछे की ओर बंधने लगे। कहने का मतलब है कि आज भले ही मैं अपने आप को सच्चा धारी सिद्ध करने की कोशिश कर रहा हूं किंतु मेरा भी अतीत झूठ के पलोथन से सना पड़ा है।
अब अंत में यही कहूंगा यदि हम अपने जीवन की रिश्तेदारी सत्य और परमार्थ से कर लें तो खुशियों की ऐसी बगिया महकेगी जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। साथ ही साथ धन लिप्सा यानी पैसे की हाय से दूरी बनाए रखना भी बहुत जरूरी है। जो व्यक्ति सच्चाई, परमार्थ और संतोषी वाली प्रवृत्ति का होगा उसे जो सुख शांति मिलेगी उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता।
विजय गुप्ता की कलम से