मथुरा। बात सन १९८६ की है। उन दिनों मैं दैनिक विकासशील भारत का मथुरा संवाददाता था। मैंने एक समाचार छापा जिसका शीर्षक था “साक्षात्कार में हेरा फेरी” यह समाचार जिला न्यायालय में चतुर्थ श्रेणीं कर्मचारियों की भर्ती से सम्बंधित था। उक्त साक्षात्कार स्वयं जिला जज की मौजूदगी में हुआ। समाचार में लिखा था कि न्यायालय के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की पन्द्रह सोलह पोस्टों के लिए पन्द्रह सौ आवेदकों को बुलाया गया। साक्षात्कार एवं लिखित परीक्षा के मध्य चहेतों के प्रति नरमी एवं अलग से बुलाकर बन्द कमरे में बातचीत व गुप्त लेनदेन का समझौता किया गया तथा योग्य व्यक्तियों की उपेक्षा की गई।
इस समाचार के छपते ही तत्कालीन जिला जज श्री बी.एन. पांडे भड़क उठे और उन्होंने मुझे पत्र लिखकर कहा कि यह समाचार गैर जिम्मेदाराना आधारहीन व न्यायालय की प्रतिष्ठा को आघात पहुंचाने वाला है। उन्होंने लिखा कि समाचार की सत्यता से सम्बंधित यदि कोई साक्ष्य हो तो उसे दिनांक २३-६-८६ को प्रातः १० बजे मेरे विश्राम कक्ष में अवश्य प्रस्तुत करने का कष्ट करें यानीं कि उन्होंने मुझे तलब कर लिया।
मैं निर्धारित दिवस पर ठीक १० बजे उनके विश्राम कक्ष में पहुंच गया। वहां पर पहुंचते ही जज साहब मुझसे बोले कि “अच्छा आप ही हैं विजय कुमार गुप्ता” मैंने कहा “हां जज साहब मैं ही हूं”। इसके पश्चात जज साहब ने पुनः कहा कि “विजय कुमार जी आजकल तो पत्रकारिता बड़ी पीली हो गई है” मैंने कहा “हां जज साहब आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं पूरा का पूरा वायु मण्डल ही पीला हो चुका है और इस पीलेपन से आपकी न्यायपालिका भी अछूती नहीं है। मेरा इतना कहते ही जज साहब जो क्षण भर पूर्व वे तकल्लुफ होकर बड़े इत्मीनान से बोल रहे थे, उनके चेहरे के भाव बदल गए और बात चली थी सिर्फ पीलेपन की किंतु स्वयं जज साहब तो पीले के साथ लाल और हो गए यानीं कि लाल पीले हो उठे। उनकी भृकुटी तन गई और चेहरा क्रोध से तमतमाने लगा।
इसके पश्चात मैंने उनसे कहा कि आपने मुझे बुलाया बताइये क्या आदेश है? उन्होंने कहा कि यह समाचार आपने छापा? मैंने कहा कि हां जज साहब। इस पर वे बोले कि न्यायपालिका पर आपने जो गंभीर आरोप लगाए हैं उनका कोई प्रमाण है? मैंने कहा कि बगैर पुष्टि किए हमने समाचार नहीं छापा है। तो वे बोले कि क्या प्रमाण है? जो भी प्रमाण हो उसे मेरे समक्ष प्रस्तुत करो। मैंने कहा कि जज साहब मैं समाचार का स्रोत बताने को बाध्य नहीं हूं। यह हमारी पत्रकारिता का नियम है। हां आप मुझे लिखकर दे दीजिए इसका खंडन, में उसे छाप दूंगा। इस पर उन्होंने दो टूक मना कर दिया। फिर मैंने कहा कि चलो लिखित मत दो मुंह जवानी ही बता दीजिए मैं उसे ही छाप दूंगा।
जज साहब बहुत गुस्से में थे, उन्होंने मुझसे कहा कि न मुझे लिखकर कुछ देना और ना ही मुंह जवानी कुछ कहना अब मुझे कुछ नहीं छपवाना, मैंने कहा ठीक है जज साहब अब मैं इजाजत लेता हूं। इसके पश्चात मैं वहां से चला आया। एक महत्वपूर्ण बात यह रही कि उस समय जज साहब वी.एन. पांडे जी के पास निर्विकार गुप्ता एडवोकेट भी बैठे थे। निर्विकार गुप्ता का उसके एक-दो दिन पहले ही जिला जज के लिए सलेक्शन हुआ था। निर्विकार जी मंडी रामदास वाले श्री जगदीश प्रसाद गर्ग एडवोकेट जो सरकारी वकील माधव शरण अग्रवाल के पिताजी थे, के जूनियर थे और हमारे पिताजी के सभी जमीन जायदादों के मुकदमे बाबू जगदीश प्रसाद ही देखते थे। जगदीश बाबू ने हमारे पिताजी की जमीन जायदादों के मुकदमों की पैरवी के लिए निर्विकार जी को नियुक्त कर रखा था यानीं कि निर्विकार जी से पिताजी का अच्छा संपर्क था और वे भी पिताजी को बहुत मानते थे।
मैंने घर आकर पिताजी को सारा किस्सा बताया। इसके पश्चात पिताजी ने हमारे सबसे बड़े भाई साहब प्रमोद कुमार जी को सांय काल निर्विकार गुप्ता के घर भेजा। भाई साहब जब लौट कर आये तो वे बहुत घबराए हुए थे। उन्होंने साइकिल को घर की देहरी पर फाटक से टिकाया। संयोग से मैं भी दरवाजे पर ही खड़ा था। मैंने उनसे पूंछा कि क्या बात हुई? उन्होंने बेहद घबराई हुई आवाज में कहा कि जिला जज तेरे ऊपर बहुत क्रोधित हैं और वह तुझे जेल भिजवाये बगैर नहीं छोड़ेंगे। मैं एकदम हक्का-बक्का सा रह गया और मेरे मुंह से निकला कि ऐसी की तैसी मुझे जेल भिजवाने वाले की। मैं भी देखता हूं कि कौन मुझे जेल भिजवाता है? अर्थात मेरे ऊपर भी लाल पीलेपन का असर आ गया।
भाई साहब ने पिताजी को बताया कि निर्विकार गुप्ता को भी इसका यानी मेरा व्यवहार ठीक नहीं लगा। उन्होंने कहा कि तुम्हारे भाई ने जज साहब की मर्यादा और बुजुर्गियत का भी ध्यान नहीं रखा और जिस प्रकार का जवाब दिया वह बहुत अनुचित और जिला जज की गरिमा के प्रतिकूल था। अतः जज साहब का कुपित होना स्वाभाविक है। उन्होंने बताया कि यह कोई प्रमाण दे नहीं पायेगा और जज साहब अब इसके खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई कर जेल भिजवाऐ बगैर छोड़ेंगे नहीं तथा यहां से वह इसकी जमानत भी नहीं लेंगे और हाईकोर्ट में लम्बी हड़ताल चल रही है अतः अब फिर यह आसानी से बाहर भी नहीं आ सकेगा। हालांकि निर्विकार जी की बात तो सही थी कि मुझे जज साहब की गरिमा और उम्र का भी ध्यान रखना चाहिए था किंतु नई-नई पत्रकारिता का नशा और जवानी के जोश में स्वत: ही मेरे मुंह से ऐसे शब्द निकल गये जो अमर्यादित थे।
इसके पश्चात मैंने इस सब प्रकरण को डॉक्टर राम मनोहर लोहिया के साथी मूर्धन्य पत्रकार श्री नरेन्द्र मित्र जी को बताया जो हर समय मेरे कवच बनकर रहते थे तथा मुझे जबरदस्ती पत्रकार बनाने में भी उन्हीं की भूमिका थी। मित्र जी की सलाह पर सबसे पहले मैंने जिला जज की ओर से (अपने कानूनी बचाव हेतु) एक छोटा सा खंडन छापा कि जिला जज ने “साक्षात्कार में हेराफेरी” समाचार का प्रतिवाद करते हुए कहा कि यह समाचार गलत है। साक्षात्कार में कोई हेराफेरी नहीं हुई है। सारी प्रक्रियाएं नियमानुसार हुई हैं। दूसरे दिन इस खंडन के छपते ही उसकी एक प्रति जिला जज की अदालत में पेशकार के पास जमा भी करा दी।
इसके दूसरे दिन मुझे जिला जज का एक और कठोर पत्र मिला जिसमें उन्होंने लिखा कि आप मुझसे मिले। मैं आपकी बात से संतुष्ट नहीं हूं। उन्होंने मुझे चेतावनी देते हुए लिखा कि आप तत्काल अपनी ओर से समाचार का खंडन प्रकाशित करते हुए खेद प्रकाश करें। उन्होंने आगे लिखा कि अन्तत: आपको कानूनी कार्यवाही के दौरान समाचार का प्रमाण देना ही होगा। जज साहब ने मुझे अपनी ओर से समाचार का खंडन व क्षमा याचना छापने हेतु मात्र तीन दिन का समय दिया।
अब फिर इसके बाद तो मेरे ऊपर पागलपन का भूत सवार हो गया। मैंने अभ्यर्थियों के घर जा जाकर उनसे लिखित शिकायतें लीं तथा उन्हें रोजाना छापना शुरू कर दिया। कुछ वकीलों राजनैतिक एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा पत्रकारों को भी साथ लिया तथा एक दिन न्यायाधिकारियों के विरुद्ध कचहरी पर प्रदर्शन करा दिया। उस प्रदर्शन में श्री नरेन्द्र मित्र जी के अलावा वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता एवं स्वतंत्रता सेनानी आचार्य वनमाली भारद्वाज हर स्वरूप त्रिपाठी एडवोकेट पत्रकार मदन मोहन मानव कवि एवं साहित्यकार उमराव विवेक निधि आदि काफी लोग मौजूद थे।
प्रदर्शनकारियों के हाथों में तख्तियां लगी हुई थी जिनमें कुछ नारे लिखे हुए थे “भोजन दो और काम कराओ, अधिकारों से मत इतराओ, नौकरी के लिए शर्त गटर में पानीं डाल सकते हो, मीट बना सकते हो, बच्चे खिला सकते हो तथा कपड़े धो सकते हो, न्याय नहीं तो अपराध बढ़ेगा, छोटा बड़ा इंसान लड़ेगा व जिसका पैसा उसका काम वर्ना होगी नींद हराम आदि आदि। दरअसल बात यह थी कि अभ्यर्थियों से जो प्रश्न पूछे गए थे उनमें अधिकांश यह भी थे जो तख्तियों पर लिखे नारों में थे।
जब हम सभी लोग प्रदर्शन को जा रहे थे तो कचहरी पर तत्कालीन विधायक सरदार सिंह मिल गये उन्होंने पूंछा कि क्या मामला है भाई? इस पर हम लोगों ने पूरी बात बताई तथा कहा कि जजों के विरुद्ध प्रदर्शन करने जा रहे हैं। इस पर वे हक्के बक्के से रह गए तथा अपना माथा ठोकते हुए बोले कि “पागल तो नहीं हो गए कहीं जजों के विरुद्ध प्रदर्शन होता है क्या? सच बात यह थी कि हम लोगों पर तो उस समय पागलपन का ही जुनून सवार था।
इसके बाद हम सभी जिला जज वी.एन. पांडे से मिलने गये उनके न मिलने पर उस ज्ञापन को जिलाधिकारी को देकर चले आऐ बात यहीं समाप्त नहीं हुई। अब तो मेरे ऊपर पागलपन का दौरा पड़ने लगा। यानीं कि रोजाना न्यायाधिकारीयों के खिलाफ समाचार छापने और उस अखबार की प्रति हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को भेजनीं। यही नहीं अपने फोटोग्राफर विशन कान्त मिलिन्द को लेकर अदालतों की खाक छानता फिरता था। एक दिन एक जोरदार मामला हाथ में आ गया यानीं कि एक व्यक्ति की जमानत हुई किंतु रिहाई बजाय उसके उसी नाम के दूसरे व्यक्ति की हो गई।
बस फिर क्या था दूसरे दिन ही २९ जून ८६ के विकासशील भारत में मेरे नाम से समाचार छपा कि “किसी की जमानत किसी की रिहाई” और उस समाचार में पूरा ब्यौरा देते हुए लिखा कि जिला जज की अदालत से जिस इलियास नामक व्यक्ति की जमानत हुई थी वह तो अभी भी जेल में है और उसी नाम के दूसरे व्यक्ति की रिहाई कर दी गई। समाचार में लिखा कि जहां दफा ३०७ जैसे संगीन मामले में ऐसी लापरवाहियां बरती जा रही हों तो फिर छोटे-मोटे मामलों में क्या होता होगा?
यह सब सिलसिला चल ही रहा था कि एक दिन बिल्ली के भागों छींका टूट पड़ा अर्थात मेरी लॉटरी फल गई और एक ऐसा जबरदस्त मामला हाथ में आ गया कि भूतो न भविष्यति यानीं कि पूरे जनपद न्यायालय में भूचाल आ गया न सिर्फ न्यायालयों बल्कि इस कांड की पूरे जनपद भर बल्कि हाई कोर्ट तक में जबरदस्त गूंज रही। दरअसल बात यह हुई कि देवी मैया के परम भक्त लाला बालमुकुंद कसेरे के आमंत्रण पर जिले भर के लगभग सभी न्यायाधिकारी कैला देवी के दर्शनार्थ करौली जाने की तैयारी में थे। सभी को करौली ले जाने की वाहन व्यवस्था भी बालमुकुंद जी के द्वारा की गई। इसकी भनक मुझे लग गई और मैं अपने छायाकार विशन कान्त मिलिन्द को स्कूटर पर बैठा कर जा पहुंचा जिला जजी में। वहां जिला जज की कोठी के आगे एक बस तथा आसमानी रंग की एक मारुति वैन खड़ी हुई थी।
मारुति वैन जिला जज बी. एन. पांडे और उनके परिवार के लिए तथा बस अन्य सभी जजों के लिए थी। बस पर सामान लादा जा रहा था और सी.जे.एम. जिनका नाम मुझे याद नहीं मारुति वैन तथा बस के मध्य खड़े होकर सामान को लदते हुए देख रहे थे। इसी दौरान मैंने मिलिन्द से कहा कि तू झट से फोटो खींच ले पोज अच्छा है। मिलिन्द ने फोटो खींच लिया। फोटो बड़ा शानदार आया उसमें सोने में सुगंध वाली बात यह रही कि जिला जज की कोठी के गेट पर लगी नेम प्लेट भी आ गई। मैं तुरंत मिलिन्द को लेकर उसकी दुकान पर आया और रील धुलवा कर फोटो निकलवाया तो मेरी बाछें खिल उठीं फोटो बड़ा लाजवाब था शायद थोड़ी देर बाद बस और वैन करौली के लिए रवाना हो गईं होंगी।
दूसरे दिन फोटो के साथ जोरदार समाचार चार काॅलम में छपा कि ये जज लोग एक ऐसे बहुचर्चित व्यक्ति के आमंत्रण पर बगैर परमीशन के उन्हीं के व्यय पर करौली चले गए, जिनके विभिन्न न्यायालयों में अनेक मामले विचाराधीन हैं। इसके अलावा और भी ऊल जलूल क्या-क्या लिख दिया। समाचार में लिखा कि ऐसे में इन न्यायाधीशों से न्याय की क्या उम्मीद की जा सकती है? तीसरे दिन जब जज लोग वापस मथुरा आऐ तो जजी में भगदड़ सी मच गई क्योंकि ये सभी बगैर परमीशन लिए गए थे। उस समय लगातार दो दिन का अवकाश था जजों ने सोचा कि चलो देवी मैया के दर्शन भी कर आयेंगे और छुट्टियों में पिकनिक भी मन जायगी।
इसके पश्चात यह हुआ कि आनन फानन में कुछ जज इलाहाबाद हाई कोर्ट गये तथा मामले को जैसे तैसे निपटवाया और बैक डेट में परमीशन भी ली गई। एक बात और बता दूं कि जिस मारुति वैन से जिला जज गए थे उसका ड्राइवर हरदेव सिंह जो अंतापाड़ा का रहने वाला था और मेरे साथ का पढ़ा हुआ था, उसने मुझे लौटने के बाद घर आकर बताया कि जब आप लोग फोटो खिंचवा रहे थे तो मैंने देख लिया और जिला जज से कहा कि सर कुछ पत्रकार और फोटोग्राफर खड़े हैं तथा फोटो वगैरा खींच रहे हैं। इस पर जज साहब ने कहा कि खींच रहे होंगे किसी और मामले में हमसे कोई मतलब नहीं। शायद जज साहब को यह अंदाजा नहीं रहा होगा कि यह पागल तो हाथ धोकर उनके पीछे पड़ा हुआ है।
इस प्रकरण के बाद मामला एकदम शान्त हो गया। मैं अपने विरुद्ध “साक्षात्कार में हेरा फेरी” वाले मामले में जिस कानूनी कार्रवाई की उम्मीद किए बैठा था, उसका कोई अता पता नहीं चला। सम्भवतः जज साहब ने सोचा होगा कि यह तो पागल नहीं विकट पागल है इसके मुंह क्या लगना। इसीलिए उन्होंने “नींच की गारी हंस कर टारी” वाला रास्ता अपना लिया। मैं सबसे पहले देवी मैया से क्षमा मांगता हूं जिनके दर्शनार्थ जाने वाले भक्तों को भी नहीं छोड़ा और उनके ऊपर मैंने छींटाकशी की, दूसरे नंबर पर जज साहब जो अब नहीं हैं की आत्मा से भी क्षमा मांगता हूं कि मैंने उनकी बुजुर्गियत और पद की गरिमा को नजर अंदाज कर छोटे मुंह बड़ी बात कही तथा अन्त में स्वर्गीय लाला बालमुकुंद जी की आत्मा से क्षमा मांगता हूं कि मैंने उनको भी नहीं छोड़ा और क्या क्या ऊल जलूल भी लिख डाला। बालमुकुंद जी ने मुझे कभी उलाहना तक नहीं दिया बल्कि मुझे एक नहीं दो बार अपने साथ सपरिवार करौली ले जाकर देवी मैया का आशीर्वाद दिलवाया यह उनका बड़प्पन था। आशा है इस विकट पागल को सभी की ओर से क्षमादान मिल गया होगा।
जब जिला जज ने मुझे जेल भिजवाने की ठानीं
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