मथुरा। हमारे नाना वैसे तो चार भाई थे लेकिन यह मार्मिक प्रसंग दो भाइयों के मध्य का है। नाना जी का नाम था श्री नाथ दास जी और उनके छोटे भाई का नाम कुन्दन लाल जी था। दोनों की शादी दो बहनों के साथ हुई हमारी नानी बरफी देवी बड़ी थीं जिनकी शादी नानाजी के साथ हुई और उनकी छोटी बहन भगवान देवी की शादी छोटे नाना जी यानीं कुन्दन लाल जी से हुई। हम सभी भाई-बहन बल्कि यूं कहिए कि पूरा घर परिवार उन दोनों को बड़ी अम्मा और छोटी अम्मा कहकर पुकारते थे। नाना जी को लोग सीजी मल और छोटे नाना जी को किद्दो मल के उपनाम से जाना जाता था। हमारे नाना जी को कुछ लोग जज साहब भी कहते थे। हम सभी घर परिवार के लोगों में नाना जी चाचाजी और छोटे नाना जी बाबू कहलाते थे। इस परिवार को शोरा कोठी वाले कहकर पुकारा जाता था क्योंकि हमारे ननिहाल वालों की किशोरी रमण कॉलेज के सामने बहुत बड़ी जमीन व शोरा बनाने का कारखाना था।
दोनों की शादी हुई बच्चे हुए और कारोबार में बंटवारा हुआ। अलग-अलग घर हो गए लेकिन धन दौलत और जमीन जायदाद ऐसी चीज हैं जो जितनी अच्छी होती है उससे कहीं ज्यादा बुरी भी होती हैं। इन्हीं की वजह से आपस में पहले मनमुटाव फिर रोजाना की कलह बाजी और अंत में कोर्ट कचहरी तक की नौबत पहुंच गई। समय के साथ साथ भेदभाव इस कदर बढ़ गया कि मुंह देखा दाखी तक बंद हो गई और यह सिलसिला लंबे समय तक चलता चला गया किंतु समय ने ऐसा पलटा खाया कि अंत समय में दोनों भाई एक दूसरे के विरह में तड़फते तड़फते मर गए लेकिन आपस में एक दूसरे का मुंह भी नहीं देख पाये।
घटनाक्रम के अनुसार लगभग पांच दशक पूर्व दोनों नानाजी बीमार पड़ गऐ तथा ऐसे बीमार पड़े कि दोनों ने चारपाई पकड़ ली हालत दिनों दिन बिगड़ती गई। अब तो दोनों भाइयों को एक दूसरे की याद सताने लगी और आपस में मिलने के लिए बेताब होने लगे किंतु मिलै तो कैसे मिलै? क्योंकि नानाजी श्री नाथ दास जी तो नाई वाली गली की बहुत लंबी घटिया के सबसे ऊपर बने अपने घर में चारपाई पर पड़े हुए थे और छोटे नाना जी होली गेट के अंदर बल्ला गली के नुक्कड़ पर बने मकान की ऊपरी मंजिल पर मृत्यु शैया पर थे।
दोनों के लिए एक-एक पल काटना मुश्किल होने लगा बिरह ऐसा कि अश्रु धारा बहती रहती और एक सीजी सीजी और दूसरे के किद्दो किद्दो की रट लगाए रहते तथा कहते हमें अपने भाई से मिलवाओ लेकिन बात वही की मिलै तो कैसे मिलै। मोबाइल उन दिनों थे नहीं तथा टेलीफोन उस समय मथुरा में सिर्फ गिने-चुने परिवारों में ही थे इन दोनों के घरों पर नहीं था वरना बात भी करा दी जाती। शायद छोटे नाना जी के घर हो लेकिन मुझे पक्का याद नहीं किंतु नाना जी के पुराने नाई वाली गली वाले पुश्तैनी घर पर तो नहीं था क्योंकि उनकी आर्थिक स्थिति उस समय कमजोर बहुत थी।
खैर एक समय ऐसा आया कि छोटे नाना जी भाई के विरह में तड़पते हुए चिर निद्रा में लीन हो गए। यह बात हमारे नाना जी को नहीं बताई गई किंतु उन्हें तुरंत इस बात का आभास होने लगा और अर्द बेहोशी सी में जर्रबक देने लगे की अरे किद्दो की दुकान पर यह भीड़ कैसी लग रही है? दरअसल उनकी कोतवाली रोड पर बृज मशीनरी स्टोर के नाम से दुकान थी क्योंकि घर होली गेट के अंदर ऊपरी मंजिल पर था वहां लोगों के बैठने के लिए जगह नहीं थी अतः मुर्दनी के लिए लोग बृज मशीनरी स्टोर पर ही एकत्र हो रहे थे। नाना जी को अपने भाई की मृत्यु का स्वत: ही पता चल गया और वह बिलखने लगे कि मुझे ले चलो किद्दो का मुंह दिखा दो आदि आदि और तड़फते तड़फते चार-पांच दिन बाद उन्होंने भी अपने प्राण त्याग दिए।
कहने का मतलब है कि दोनों भाई और उनके परिवार भी आपस में इस धन दौलत और जमीन जायदाद के कारण ताजिंदगी आपस में दुश्मन बने रहे और अंत में जो हश्र हुआ वह सभी के सामने है।
मैं इन सब बातों की चर्चा अपने ननिहाल वालों की बुराई की भावना से नहीं कर रहा हूं। बल्कि यह कहना चाहता हूं कि इस धन दौलत और जमीन जायदादों में इतनी आसक्ति करके क्या फायदा मिलता है? सिवाय नुकसान ही नुकसान के। अपना जीवन तो नष्ट होता ही है साथ ही देखा देखी परिवार के अन्य सदस्य भी उसी राह पर चलकर संपूर्ण जिन्दगी को काली कर लेते हैं और यह सिलसिला कुसंस्कारों के रूप में बेल की तरह आगे की वंशावली में निरन्तर बढ़ता ही नहीं बल्कि दिन दूनी रात चौगुनी तीव्र गति से दौड़ता रहता है।
यह जन्म ही नहीं आगे के जन्म भी काले स्याह हो जाते हैं। अतः हम सभी को इस धन दौलत और जमीन जायदाद में आसक्ति वाली अंधी दौड़ से तौबा कर लेनी चाहिए इसी में हमारा वह हमारी अगली पीढ़ी का भला है।
विजय गुप्ता की कलम से