Saturday, November 23, 2024
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जश्ने आजादी या जश्ने बर्बादी?

विजय गुप्ता की कलम से

     मथुरा। 15 अगस्त आया और आजादी का जश्न खूब जोर-शोर से मना। चारों तरफ तिरंगे की धूम रही। ऐसा लग रहा था कि यह आजादी हमारे लिए स्वर्ग से भी बड़ी खुशी का तोहफा लेकर आई थी और हम सब रामराज में जी रहे हैं।
     लेकिन वास्तविकता क्या है? जिसे हम सभी जानते हैं। पहले तो हमारा देश विदेशियों के अत्याचारों से त्रस्त था किंतु अब तो स्वदेशियों के अत्याचार इतने भयंकर हो रहे हैं कि अंग्रेजो के अत्याचार भी फीके पड़ गए। मैं सोचता हूं कि इससे अच्छा तो यह रहता कि हम लोग अंग्रेजों की दासता में ही बने रहते।
     चारों तरफ हत्या, लूट, डकैती, व्यभिचार, बेईमानी आदि का तांडव मच रहा है। अन्याय और अत्याचार पूरे चरम पर हैं। ऐसा लगता है कि हम आजादी का नहीं बल्कि अपने देश और देशवासियों की दुर्गति यानी बर्बादी का जश्न 15 अगस्त और 26 जनवरी को मानते हैं। आजादी के इन उत्सवों के नाम पर देशभक्ति के जो ढोंग पाखंड होते हैं उनसे तो मेरा मन और भी जल भुन जाता है। देशभक्ति का क्या मतलब होता है? शायद यह कि तिरंगे झंडे को सलाम करें, उसे खूब ऊंचा करके फहराएं कार्यक्रमों में देशभक्ति के लंबे-लंबे भाषण और गीतों को प्रमुखता से स्थान मिले। प्रभात फेरियां निकलें, भारत माता की जय के उद्घोष हों आदि आदि।
     नहीं नहीं यह सब ढकोसले बाजी है। मेरी नजर में देशभक्ति का मतलब है कि हम सभी ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ बनें, सच्चाई और परोपकार की जिंदगी जिएं। जीवन के हर एंगल को नैतिकता की कसौटी पर खरा उतरने वाला बनाएं। एक दूसरे की मदद करें, किसी भी दुखिया को देख उसके दुःख में शामिल हों। पशु पक्षी आदि हर जीव जंतु के प्रति दयावान बनें। यदि हम सब अच्छे संस्कारवान बनकर रहें तो हमारा देश निश्चित रूप से तरक्की करेगा।
     मेरा मानना तो यह है कि पूरी पृथ्वी अपनी है। इस पर रहने वाले प्रत्येक प्राणी अपने परिवारी जन हैं। ईश्वर सभी का कल्याण करें। हमारी माता जी और पिताजी ने बचपन में हमें सिखाया था कि सुबह-सुबह चारपाई से उतरने से पहले धरती का स्पर्श कर अपने मस्तक से लगाकर कहना चाहिए कि “पृथ्वी माता तू बड़ी तो से बड़ौ न कोय, सवेरे उठकर पग धरूं बैकुंठ बसेरो होय”।
     कहने का मतलब है कि देश से भी बड़ा दर्जा हमारी पृथ्वी का है। देश की बात तो यह है कि कभी हमारा देश अरब देशों तक फैला हुआ था। बाद में एक-एक करके कई टुकड़े होते गए। अब सोचने की बात यह है कि देशभक्ति का क्या पैमाना रह गया? अजीब विडंबना यह है कि पहले मानसरोवर आदि हमारे देश में ही थे किंतु बाद में चीन ने उन पर कब्जा कर लिया तो क्या हम मानसरोवर जैसे अपने पवित्र तीर्थ स्थल के प्रति अश्रद्धा कर लेंगे? इसी प्रकार पाकिस्तान में भी हमारे कई तीर्थ स्थान हैं हमारे कुलदेव श्री नृसिंह भगवान का जन्म स्थान मुल्तान है। यदि मुझसे कोई पूछे कि यदि तुम्हें कभी विदेश जाने का मौका मिलेगा तो कौन से देश में जाना पसंद करोगे? तो मैं कहूंगा कि पाकिस्तान। पाकिस्तान में जाकर सबसे पहले मुल्तान जाऊंगा और वहां की मिट्टी को मस्तक से लगाकर अपने आप को धन्य करूंगा। देखा जाए तो देशों का आकार तो बनता बिगड़ता रहता है।
     बात वही लौट कर आती है कि हम सदाचारी बनाकर अपनी जिंदगी जिएं तो न सिर्फ यह जन्म बल्कि अगला जन्म भी सुखद होगा। साथ ही हमारी अगली पीढ़ी भी इसी दिशा में अग्रसर होगी। यदि हम इसी प्रकार पापा चारी जिंदगी जीते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब फिर से गुलाम बन जाएंगे। ऐसा ना हो कि पहले मुसलमानों की गुलामी की, फिर अंग्रेजों की और अब कहीं चीनियों के गुलाम न बन जाएं।
     प्रसंग से हटकर एक बात और कहता हूं वह यह कि हमारे देश का मटिया मेट करने के सबसे बड़े दो कारण हैं। पहला तथा कथित लोकतंत्र यानी वोट की राजनीति और दूसरा आरक्षण। इन दोनों ने समूचे देश को कोढ़ी जैसी स्थिति में ला दिया है। जब तक यह दोनों राक्षस नहीं मरेंगे तब तक हम सुखी नहीं रह सकते। आओ सदाचारी बनने के साथ-साथ इन दोनों राक्षसों का अंत करने की और अग्रसर हों।

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