विजय गुप्ता की कलम से
मथुरा। पुराने समय से यह कहावतें चली आ रही हैं कि “जो भीड़ में गया वो भाड़ में गया” और “मन चंगा तो कठौती में गंगा” किंतु इस ओर तो शायद नाम मात्र के लोगों का ही ध्यान है। ज्यादातर लोग तो ठीक उसी प्रकार भाड़ में जाने के लिए व्याकुल रहते हैं, जैसे पतंगा आग में जाने के लिये।
ताजा उदाहरण कुम्भ है। जब देख रहे हैं कि करोड़ों की भीड़ उमड़ी पड़ रही है, तो फिर उस समय क्यों नहीं जाते जब भीड़ का दबाव समाप्त हो जाय और क्या यह जरूरी है कि कुम्भ में जाना ही जाना है? भले ही मरें, गिरें, कुचलें या फिर तमाम तरह की परेशानियां झेलें लेकिन होड़ा होड़ी का ऐसा नशा सवार कि आगा पीछा भला बुरा सोचने की जरूरत नहीं बस एक ही धुन कि चलो कुम्भ में गोता ले आयें।
ऐसा लगता है कि जो कुम्भ में जाकर गंगा यमुना का जल अपने ऊपर छिड़क लेंगे या गोता ले लेंगे वे सीधे भगवान के गौलोक धाम जाएंगे और भगवान सभी को गले लगा कर उनका स्वागत करेंगे। बाकी जो कुम्भ नहीं जाएंगे उनका नर्क में जाना पक्का है।
मेरी समझ में नहीं आता कि ज्यादातर दुनियां वाले अपने दूषित कर्मों को तो छोड़ नहीं रहे और दिखावटी पन में मरे जा रहे हैं। बांके बिहारी मंदिर में ही देख लो रोजाना क्या हाल होता है। मुझे तो आस्था कम नौटंकी ज्यादा दिखाई देती है। मुझे तो पुरी के शंकराचार्य श्रद्धेय निश्चलानंद सरस्वती की यह बात बहुत अच्छी लगी कि आध्यात्म में पिकनिक का तड़का नहीं लगना चाहिए।
मैं ऐसी बातें कह कर यह सिद्ध नहीं कर रहा की कुम्भ जाना, मंदिरों के दर्शन करन या फिर अन्य तीर्थ स्थलों पर जाना अथवा परिक्रमा करना गलत है, किंतु भीड़ में ही क्यों?उछीर मैं क्यों नहीं? गोवर्धन में मुड़िया पूनों को ही ले लो बताने की जरूरत नहीं क्या हाल होता है।
संत रैदास जी भले ही रोजाना गंगा स्नान करने नहीं जाते किंतु गंगा मैया में उनकी श्रद्धा अटूट थी। मन ही मन गंगा जी की आराधना करते और जूते गांठने के अपने कर्म में लगे रहते। जब मौका मिलता तो गंगा स्नान भी कर आते किंतु दिनचर्या में शुद्ध आचरण और ईमानदारी के साथ जूतों के काम में तल्लीन रहते।
गंगा मैया की कृपा नित्य डुबकी लगाने वालों से कहीं ज्यादा उन पर थी। तभी तो रोती बिलखती महिला जिसका सौने का कड़ूला जो गंगा जी में गिर गया उसे उन्होंने चमड़ा भिगोने वाले पात्र कठौती में से निकाल कर दे दिया। भले ही संत रैदास मोची थे किंतु उनके कर्म, उनके विचार आदर्श थे। वे हम ऊंची जाति कहलाने वालों से भी ऊपर की श्रेणी में आते हैं। एक बार मेरी संत शैलजा कांत जी से बातें हो रहीं थीं। उन्होंने कहा कि जाति कर्मणा होती है जन्मना नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि आज यदि रैदास जी होते तो मैं उनके पैर धो-धो कर पीता।
अब वापस असली मुद्दे पर आता हूं। मुझे बिहारी जी, द्वारकाधीश, श्री कृष्ण जन्मभूमि आदि मंदिरों में गए अनेक वर्ष हो गए किंतु इसका कोई मलाल नहीं। अब तो रोजाना जमुना जी की हाजिरी भी घुटनों के कारण नहीं लग पाती भले ही जमुना मैया पास में ही हैं। इसका भी कोई ज्यादा मलाल नहीं। फिर भी जमुना मैया की कृपा इतनी कि कभी-कभी स्वप्न में हाजिरी लग जाती है और छटे छमाहे गोता भी।
अब स्वप्न का एक रोचक और ताजा वाकया बताता हूं। कुछ दिन पहले की बात है मैंने संत शैलजा कांत जी से पूंछा कि आप भी कुम्भ स्नान करने जाओगे क्या? उन्होंने कहा कि हां जाऊंगा। तो मैंने पूछा कि कब जा रहे हो, तो वे बोले कि जब भीड़ कम होगी तब चला जाऊंगा। इसके दो चार दिन बाद मैंने फिर पूछा की कुम्भ हो आए क्या? इस पर उन्होंने कहा कि वहीं जा रहा हूं इस समय रास्ते में हूं कल सुबह स्नान करूंगा।
अगले दिन मुझे स्वप्न में दिखाई दिया कि एक नदी में घुटनों घुटनों पानीं है और काफी लोग उसमें स्नान कर रहे हैं। स्नान करने वालों में मैं स्वयं भी था। मैंने चारों ओर नजर घुमाई तो मंदिरों के ऊंचे ऊंचे गुंबद तथा बड़े-बड़े लोहे के पुल दिखाई दिए। उन पुलों में एक पुल कलकत्ते के हावड़ा पुल जैसी बनावट का भी दिखाई दिया। स्वप्न में ही मैं सोचने लगा कि यहां हावड़ा ब्रिज कहां से आ गया यह कोई कलकत्ता तो है नहीं। फिर और दूर तक नजर गई तो कलकत्ते वाले हावड़ा ब्रिज का भी विराट स्वरूप दिखाई दे गया। इसके बाद मेरी आंख खुल गई यह वाकया ब्रह्म मुहूर्त के समय का था।
इसके बाद मेरे दिमांग में नदी में स्नान और हावड़ा ब्रिज की झलक घूमती रही। मैंने अपना स्वप्न संत शैलजा कांत जी को सुनाया और पूंछा कि क्या कुम्भ में हावड़ा पुल जैसी बनावट का कोई पुल है? इस पर उन्होंने कहा कि हां ऐसा एक पुल है। मैंने उनसे कहा कि फिर तो मैं बड़ा भाग्यशाली हूं जो बगैर इलाहाबाद गये कुम्भ का गोता ले आया। उन्होंने मुझे आशीर्वाद स्वरूप बधाई दी। दो-तीन दिन बाद हमारे बड़े भाई सीताराम जी भी कुम्भ स्नान करके लौटे तब भी मैंने उनसे पूंछा कि वहां आपने कोई ऐसा पुल देखा जो कलकत्ते के हावड़ा पुल जैसी बनावट का हो। उन्होंने भी यही कहा कि हां एक पुल हावड़ा पुल जैसी बनावट का है।
एक बात और बतादूं कि मेरे मन में कुम्भ जाने की कोई लालसा नहीं थी, बल्कि मैं तो कुम्भ जाकर भीड़ बढ़ाने वालों को कोसता रहता था किंतु ईश्वरीय कृपा ऐसी कि कुम्भ स्नान करा दिए। वह भी उसी दिन जब संत शैलजा कांत जी ने स्नान किये। इसे मैं पूज्य देवराहा बाबा महाराज की कृपा का परिणाम मानता हूं कि उन्होंने अपने परम प्रिय शिष्य शैलजा कांत जी की तरह कुम्भ स्नान करा दिया वह भी उसी दिन।
सौ की सीधी एक बात है कि हमें भीड़भाड़ से दूर रहकर तन से अधिक मन को चंगा रख कर परमार्थ की नदी में गोता लगाते रहना चाहिए। यही वेद, शास्त्र, पुराण और सभी धर्म ग्रंथो का सार है।