मथुरा। देशभक्त जी की उठावनी में कुछ लोगों ने जीते जी खुद की ही उठावनी करके अपनी आत्मा को शांति दी। सुनने में भले ही यह बात गले नहीं उतरती किंतु जो कुछ मैंने अपनी आंखों से देखा और कानों से सुना उससे तो मुझे ऐसा ही लगने लगा। दरअसल बात यह है कि उठावनी या शोक सभाओं में दिवंगत व्यक्ति की अच्छाइयों पर प्रकाश डालकर अपनी श्रद्धांजलि दी जाती है किंतु देशभक्त जी की उठवानी (शोक सभा) में कुछ लोगों ने देशभक्त जी से ज्यादा अपने गुणगान किये।
कोई देशभक्त जी के ऊपर किए गए अपने एहसानों को बड़ा चढ़कर बखान कर अपनी पीठ ठोक रहा था तो कोई अपने गांव व कस्बे का नाम व नये नये मिले ओहदों की शेखी बघार कर इतरा रहा था। कहने का मतलब है की देशभक्त जी से ज्यादा अपने आप को महिमा मंडित करके चंद महापुरुषों ने खुद अपनी ही उठवानी कर डाली।
उठावनी का समय तीन से चार बजे का था किंतु बोलने की अपनी भूख मिटाने वाले कुछ लोग माइक से बुरी तरह चिपक जाते। जबकि संचालक बार-बार कह रहे थे कि समय ओवर हो रहा है। लोग संक्षेप में अपनी श्रद्धांजलि दें किंतु बेशर्मी की हदें पार हो रही थी तथा चार के स्थान पर पांच बजने को आ गए। स्थिति यह हो गई कि उठावनी के समापन से पूर्व ही लोगों ने उठ उठ कर बाहर निकलना शुरू कर दिया।
ऐसा नहीं कि सभी वक्ता लंबा समय खींच रहे थे कुछ समझदार व्यक्ति अल्प समय में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे थे। मुझे तो देशभक्त जी के प्रति सबसे अच्छी श्रद्धांजलि कुं. नरेंद्र सिंह की लगी जिन्होंने ज्यादा समय भी नहीं लिया और देशभक्त जी की यह अनूठी बात भी बताई कि वे गिर्राज जी की ज्यादातर परिक्रमा दूसरों के लिए करते थे, जिनके लिए परिक्रमा होती उन्हें लाभ भी मिलता। यह सब कहते-कहते नरेंद्र सिंह जी का गला रुंध आया।
उल्लेखनीय है कि जब नरेंद्र सिंह जी कोरोना से पीड़ित हुए तथा उनके बचने की उम्मीद भी नहीं रही तब देशभक्त जी ने नरेंद्र सिंह जी को ढाड़स बंधाया और नरेंद्र सिंह जी के नाम की परिक्रमा देकर उन्हें प्रसादी दी। इसके बाद नरेंद्र सिंह जी की दशा में सुधार होता गया और वे कोरोना पछाड़ बन गए। कुछ इसी प्रकार का घटनाक्रम मेरे साथ भी हो चुका है। मैं भी देशभक्त जी की कृपा के लिए उनका ऋणी हूं।
अब उठवानी का आगे का हाल बताता हूं। उठावनी के अंत में वृंदावन के एक महान व्यक्ति तो ऐसे चिपक गए कि माईक को छोड़ें ही नहीं। इस पर संचालक व अन्य व्यक्ति दोनों ने आगे पीछे खड़े होकर इशारे करके रोकने का खूब प्रयास किया तब भी वे पांच मिनट और चाट गए।
मुझे तो उठावनी में जाकर बड़ी कोफ्त हुई ऐसा लगा कि इससे अच्छा तो यह रहता कि मैं आता ही नहीं। आजकल उठावनियों में एक और बीमारी चल गई है कि ढेरों रद्दी आ जाती है और उसे पढ़-पढ़ कर सुनाया जाता है कि फलां संस्था ने, फलां व्यक्ति ने उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए यह कहा वह कहा। मजेदार बात तो यह है कि मृतक के घर वाले भी इस दौड़ में शामिल हो जाते हैं तथा लोगों का समय बर्बाद होता है। पर कुछ को अपना नाम बुलवाने में बड़ी खुशी मिलती है।
अंत में यह जरूर कहूंगा कि देशभक्त जी अपने लिए कम औरों के लिए ज्यादा जिये। उन्होंने न कोई प्रॉपर्टी बनाई न धन दौलत जोड़ी पर यश कीर्ति खूब अर्जित की। जिस समय वे अमरनाथ विद्या आश्रम के प्रधानाचार्य थे उस दौरान विद्या आश्रम की ख्याति आगरा मंडल के नंबर वन विद्यालय में गिनी जाती थी। वे अमरनाथ विद्या आश्रम के लिए तन मन धन से समर्पित रहे। एक बार जब विद्या आश्रम की शुरुआत थी, अचानक आर्थिक संकट आ गया तब उन्होंने अपनी शादी में आए शगुन तक के समान को गिरवी रखकर धन जुटाया। विद्या आश्रम को बनाने और इतनी ऊंचाइयां देने में स्व. आनंद मोहन बाजपेई जी को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता किंतु आश्रम पर आए हर संकट को पत्रकारिता की वैतरणी से पार लगाने का श्रेय भी देशभक्त जी को है। हालांकि आजकल उनकी स्थिति दूध की मक्खी जैसी थी।
भले ही इस भौतिक संसार में उनकी स्थिति कैसी भी थी पर फिर भी बहुत अच्छी और सुख शांति वाली थी। वे बड़ी हंसी-खुशी शिवरात्रि के महापर्व पर शिवजी की पूजा अर्चना और हवन इत्यादि के बाद चलते फिरते 85 वर्ष की उम्र में गौलोक वासी हुए यह क्या कम बड़ी बात है? बहुत से लोग तो वर्षों घिसटते रहते हैं और मौत मांगने पर भी नहीं मिलती बल्कि मौत उनके पास तक आ तो जाती है पर दुत्कार कर चली जाती है। सच बात तो यह है कि जीवन की परीक्षा में वे ईश्वरीय यूनिवर्सिटी के टॉपर बनकर हमसे विदा हो गिर्राज जी के चरणों में पहुंचे। बोल गिर्राज महाराज की जय।
कुछ लोगों ने देशभक्त जी की उठावनी में अपनी ही उठावनी कर डाली
RELATED ARTICLES
- Advertisment -