रिपोर्ट – अरुण यादव
वृंदावन। भगवान श्रीकृष्ण की क्रीड़ास्थली श्रीधाम वृंदावन। यह नाम वृंदा यानी तुलसी का वन के कारण पड़ा था तो वहीं कदंब के वृक्ष श्रीकृष्ण की लीलाओं का स्मरण कराते हैं। अब बात करें आज के वृंदावन की तो यहां ना तो तुलसी के वन दिखाई देते हैं और कहीं कहीं दिखाई देने वाले कदंब के वृक्ष भी अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं। जिससे विश्व में हरीतिमा के लिए विख्यात यह नगरी कंक्रीट के जंगल में तब्दील होती जा रही है।
हरियाली युक्त वातावरण का कंक्रीट के जंगल यानी बिल्डिंग के रूप में तब्दील होने की मुख्य वजह जहां सुंदरीकरण एवं बड़े-बड़े शहरों की तर्ज पर अपार्टमेंट और कालोनियां विकसित करने के लिए पेड़-पौधे तो क्या बाग-बगीचों को नष्ट करने के लिए लाइसेंस देने वाले अधिकारी हैं। वहीं पर्यावरण संरक्षण के प्रति जनप्रतिनिधियों व पर्यावरणविदों की उदासीनता भी कम दोषी नहीं है। हालांकि प्रतिवर्ष शासन द्वारा प्रशासन को पौधारोपण का लक्ष्य व निर्देश दिए जाते हैं और इसके लिए लाखों-करोड़ों रुपए का खर्च दिखाकर लक्ष्य पूरा भी दिखा दिया जाता है। इतना ही नहीं विभिन्न संस्थाओं द्वारा समय-समय पर अभियान चलाकर पौधारोपण किया जाता है। इस सबके बावजूद धरातल पर परिणाम शून्य ही नजर आता है। क्योंकि प्रशासन की जिम्मेदारी कागजों में शासन के लक्ष्य की पूर्ति तक रह जाती है और संस्थाओं के अभियान पौधारोपण की खबरें प्रकाशित व प्रसारित होने तक पूरे हो जाते हैं। इसके बाद रोपे गए पौधे जीवित हैं या नष्ट हो गए या फिर अन्य पेड़-पौधों को कभी भी कोई भी नुकसान पहुंचाए। इसकी ओर ध्यान देने की आवश्यकता न तो प्रशासन समझता है, न संस्थाओं के पदाधिकारी और न ही जनप्रतिनिधि। जिसके परिणामस्वरूप वन संपदा लगातार नष्ट और कंक्रीट के जंगल विकसित हो रहे हैं।