रिपोर्ट – विजय कुमार गुप्ता
मथुरा। जब हम पैदा हुऐ जग हंसा हम रोऐ, ऐसी करनी कर चलौ हम हंसै जग रोऐ। एक थीं पार्वती देवी। भले ही उनको गुजरे लगभग चार दशक हो गए लेकिन उनकी करनी की वजह से आज भी उस समय की उनको जानने वाली पीढ़ी याद करती है। जैसा उनका नाम था ठीक वैसे ही उनके गुण थे। वे सचमुच में देवी स्वरूपा थीं।
बुआ जी के नाम से विख्यात पार्वती देवी गोविंद गंज के आढ़ती स्व. श्री पुरुषोत्तम दास एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती बुद्दो देवी के यहां जन्मी थीं। पिता स्व. पुरुषोत्तम दास का देहांत उस समय हो गया जब वे लगभग छः-सात साल की थी। उनके छोटे भाई खचेरमल उर्फ नवल किशोर भी उस समय लगभग चार वर्ष के थे। माँ बुद्धो देवी, ताऊ श्री दामोदरदास और हर प्रसाद जी के संरक्षण में इन दोनों बहन-भाई का लालन-पालन हुआ।
जब पार्वती देवी बड़ी हुईं तो उनका विवाह कोयला वाली गली निवासी मनोहर लाल उर्फ मुनारे जी के साथ हुआ। पार्वती देवी बचपन से ही दयालु, परोपकारी एवं अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति की रहीं थीं तथा जीवन पर्यन्त उन्होंने अपने परोपकारी धर्म को निभाया। प्रातः चार बजे से पूर्व ही विश्राम घाट पर यमुना स्नान और फिर अपने लड्डू गोपाल की पूजा आराधना और मंदिरों में दर्शन के पश्चात परोपकार की दिनचर्या शुरू हो जाती थी। भजन-कीर्तन और सत्संग उनके स्वभाव की विशेषता थी। वे किसी से लेकर नहीं देकर और खाकर नहीं खिलाकर बहुत सिहाती थीं।
उनके कोई संतान नहीं थी, किंतु पास-पड़ौस तथा नातेदार-रिश्तेदार आदि सभी की संतान को वह अपनी संतान की तरह मानती थीं और सभी बच्चों को लेकर मेला, तमाशे और परिक्रमा आदि कराने ले जातीं तथा खिलाने-पिलाने से लेकर खेल-खिलौने आदि सभी व्यय अपने पास से करती थीं।
वह दयावान इतनी थीं कि नौकर-चाकर से लेकर अड़ौस-पड़ौस के गरीबों की गुपचुप मदद करती रहती थीं। उनके छोटे भाई खचेरमल उर्फ नवल किशोर की धर्मपत्नी श्रीमती रतन देवी का निधन लगभग पचास वर्ष की उम्र में हो गया। पार्वती देवी जो बुआ जी के नाम से प्रसिद्ध थीं, ने अपने छोटे भाई के सभी दसौं बच्चों का लालन-पालन भी ऐसे किया, जैसे कोई सगी माँ भी नहीं कर सकेगी। बचपन से लेकर अंत समय तक उन्हें किसी ने किसी से भी लड़ते झगड़ते नहीं देखा। वे अत्यंत शांत स्वभाव की भी थीं।
कुत्तों को रोटी, गायों को हरा चारा तथा कछुआ मछलियों को आटे की गोली खिलाना उनका प्रिय कार्य था। वह कीड़े मकोड़ों तक में बड़े दयालु भाव रखती थीं। नाली में गर्म पानी तक न खुद डालती थीं और न घर में से किसी को भी डालने देती थीं ताकि नाली के कीड़ों को कोई कष्ट न हो। उनके परोपकारी और दयालु स्वभाव के कारण पुरानी पीढ़ी के जो लोग बचे हैं। वह बुआ जी का नाम बड़ी श्रद्धा से लेते हैं और कहते हैं कि पार्वती बुआ तो साक्षात देवी स्वरूपा थीं। उनके स्मरण मात्र से मन श्रद्धानत हो उठता है। धन्य हैं ऐसी दिव्य आत्मा। हम सभी को बुआ जी के जीवन से प्रेरणा लेनीं चाहिए।
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प्राण त्यागने के समय ज्योति निकली थी
बुआ जी ने जब प्राण त्यागे थे, उस समय उनकी देह से एक ज्योति निकली थी और वह ज्योति शरीर से निकलकर ऊपर की ओर जाती देखी गई। अंतिम सांस लेने के समय उनके पास मौजूद गली पीर पंच निवासी पुराने सब्जी आढ़ती स्व. मनोहर पांडे की धर्मपत्नी श्रीमती चुन्नी देवी ने बताया कि मैंने उनके अंतिम समय पर एक अद्भुत दृश्य देखा था। जिसके अनुसार बुआ जी के शरीर से एक लोय निकली और धीरे-धीरे ऊपर की ओर उठी और गायब हो गई। चतुर्वेदी समाज में अग्नि की लौ को लोय बोलते हैं।
श्रीमती चुन्नी देवी बुआ जी के बारे में बताते-बताते भाव व्हिव्ल होकर रोने लगीं। यही स्थिति उनके पति की थी जो अब इस दुनियां में नहीं हैं। उन्होंने भी मुझे एक बार बुआ जी के बारे में बहुत कुछ बताया और इसी प्रकार वह भी बताते-बताते आंखों में आंसू ले आऐ।