विजय कुमार गुप्ता
मथुरा। देश की प्रगति में सबसे ज्यादा घातक है तो वह है आरक्षण और वोट तंत्र। यह दोनों हमारे देश में घुन व दीमक की तरह लग गए हैं। इन्होंने देश को खोखला करके रख दिया है। जब तक ये दोनों रहेंगे, देश आगे नहीं बढ़ेगा। इन दोनों ने देश की हालत कोढ़ी जैसी कर रखी है। यदि देश की लाज इस समय बचा रखी है तो नरेन्द्र मोदी ने अपने व्यक्तिगत बलबूते पर। यदि राजनैतिक नजरिये से हटकर सोचा जाये तो यह 100 प्रतिशत सही है।
पिछले कुछ समय पूर्व जब संघ प्रमुख श्री मोहन भागवत ने यह कहा कि आरक्षण पर विचार मंथन होना चाहिये। बस इसी बात को लेकर देश में भूचाल सा आ गया। जबकि उन्होंने आरक्षण समाप्त करने की कोई बात नहीं की सिर्फ विचार मंथन की चर्चा की थी।
वोट तंत्र यानी लोक तंत्र बल्कि मैं तो कहूंगा कि यदि जो आज कल हो रहा है, यही लोक तंत्र है तो यह लोक तंत्र नहीं कोढ़ तंत्र है। ऐसा लोक तंत्र किस काम का जो देश द्रोही और जयचंद जैसे गद्दारों को प्रोत्साहित करके वोट प्राप्त करने का अपना उल्लू सीधा करें और फिर भी हम इतरा-इतरा कर कहते हैं कि हमारा लोक तंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोक तंत्र है।
हम लोगों को चीन से सबक लेना चाहिये और सोचना चाहिये कि वह कैसे विश्व की बड़ी ताकत बन गया। वहां देश विरोधी ताकतों को जूते के बल पर रौंद दिया जाता है और हमारे यहां देश विरोधी ताकतों को सर आंखों पर बिठाकर रखा जाता है और उनके जूते चाटे जाते हैं। यही कारण है कि चीन का डंका बज रहा है और हमारा जो हश्र हो रहा है वह सभी के सामने है।
इससे अच्छा तो आपात काल था जब संजय गांधी भले ही तानाशाह बन गए लेकिन उन्होंने तानाशाह बनकर भी पूरे देश को प्रगति की राह पर ला दिया। ट्रेनें समय पर चलने लगी। भ्रष्टाचार का नामोनिशान नहीं दिखाई देता था। हालांकि इंदिरा गांधी ने आपातकाल अपने आप को सत्ता में बनाये रखने के लिये लागू किया था। दूसरी ओर यह भी मानना होगा कि भले ही इंदिरा गांधी में लाख कमियां हों किंतु बांग्लादेश बनवाकर पाकिस्तान के दो टुकड़े करने का साहसिक कार्य उन्होंने ही किया।
यह भी सही है कि आपातकाल में ज्यादतियां भी बहुत हुई और उसी का परिणाम सामने आया कि इंदिरा गांधी और संजय गांधी की भारी दुर्गति हुई वे खुद अपना चुनाव तक हार गये। लेकिन सच्चाई तो सच्चाई है, इसे स्वीकार करने में हिचकिचाना नहीं चाहिये।
आरक्षण को आजादी के बाद कांग्रेस ने 10 साल के लिये यह कहकर लागू किया था कि निचले तबके के लोगों को राहत दी जा सके लेकिन वास्तविकता यह है कि कांग्रेस ने निचले तबके के लोगों की सहानुभूति लेकर अपने वोट बैंक को मजबूत करने के इरादे से यह चालबाजी खेली थी जिसकी सजा अब पूरा देश भुगत रहा है।
10 वर्ष के नाम पर किया गया आरक्षण अब 100 साल में भी नहीं समाप्त होगा। अब तो आरक्षण का रोग फैल रहा है और हर कौम आरक्षण मांग रही है। आरक्षण के नाम पर अयोग्य व्यक्तियों को योग्यों के ऊपर बैठाकर देश तरक्की करेगा क्या? तांगे में घोड़ों के स्थान पर गधों को प्रमोशन देकर जोत दिया जाये और यह कहा जाये कि इससे गधों का स्तर ऊँचा होगा और वे घोड़ों के समकक्ष हो सकेंगे तो क्या होगा? आप स्वयं समझ सकते हैं।
ठीक यही हाल देश रूपी तांगे का हो रहा है। होना यह चाहिये कि चाहे जिस जाति धर्म या समाज का व्यक्ति हो यदि योग्य है तो वह योग्य है और अयोग्य है तो अयोग्य है। यदि पिछड़े वर्ग के लोगों को उठाना है तो उन्हें पहले योग्य बनायें, फिर वे स्वयं ऊँचे उठ जायेंगे। अयोग्य होते हुए उनके ऊपर आरक्षण का लेबल चिपका कर योग्यता की श्रेणी खड़ा करना देश के साथ गद्दारी है।
पिछड़ा वर्ग तो हर जाति के लोगों में होता है, हर जातियां एवं सम्प्रदाय में तरक्की किये और पिछड़े लोग होते हैं। खास जाति के लोगों को पिछड़ा मान लिया जाना गलत है। क्या संत रैदास अगड़ी जाति के थे? ऐसे एक नहीं अनेक महापुरुष हुए हैं जिनको पूजा जाता है।
सबसे ज्यादा शर्मनाक बात महिला आरक्षण है। महिलाओं को हर जगह आरक्षण देकर सरकारें महिलाओं के साथ भी ज्यादती कर रही है। मान लीजिये कोई महिला सरकारी नौकरी में है और उसे प्रसव होता है। उस अवधि में उसे मातृत्व अवकाश दिया जाता है। ठीक है मातृत्व अवकाश कुछ समय के लिये होता है, फिर उसके बाद बच्चे के लालन-पालन की जिम्मेदारी क्या समाप्त हो जाती है? इस सबसे हटकर एक बात और वह यह कि इन बेचारियों का कार्यालयों में भी किस-किस प्रकार का शोषण होता है, सभी जानते हैं।
महिलाओं को घर जाकर गृहस्थी भी संभालनी, खाना बनाना आदि सब कुछ देखना यानी चैबीसों घंटे खटते ही रहना होता है। पहले कार्यालय फिर घर और घर वाले भी यही चाहेंगे कि मरे या जिये कमाई करके ला। इससे भी बड़ी बात यह है कि उस नवजात के अधिकारों का कितना भयंकर हनन होता होगा जिनके लिये उसका पूरा हक है। बच्चे की परवरिश और उसके सही लालन-पालन में कितनी कटौती होती होगी, यह भी किसी ने सोचा है। माँ तो माँ नवजात बच्चों के लिये कितनी तकलीफ होती होगी? इस ओर भी ध्यान देना होगा। उनके नवजात अधिकार कहां जायेंगे?
एक दूसरा पहलू और देखना होगा, वह यह कि एक घर में तो लड़के, बहू, बेटी यानी पूरा कुनबा नौकरी कर रहा है और दूसरी ओर पड़ौस में ही दूसरा घर है जिसमें कमाने वाला केवल एक ही मुखिया है, उसको रोजगार भी पूरी तरह से नहीं मिल रहा, बेकारी से परेशान है। घर में बच्चों को भरपेट खाना भी नसीब नहीं है।
कहने का मतलब है कि महिलाओं को मुख्यतः घर गृहस्थी में ध्यान देना चाहिये तथा बच्चों की परवरिश व उन्हें अच्छे संस्कारवान बनाना चाहिये। मजबूरी की बात दूसरी है। कमाई करना मर्दों का काम है ना कि औरतों का। इसीलिये उन्हें घरवाली कहा जाता है।
लेकिन अब तो हल बेहाल है। पहले जमाने में औरतों और लड़कियों से काम करना हेय दृष्टि से देखा जाता था। औरतों व लड़कियों को नौकरी या व्यवसाय सिर्फ विपरीत परिस्थितियों में या यों कहिये कि मजबूरी में करना चाहिये। बेरोजगारी का एक मुख्य कारण यह भी है।
देखने में आता है कि ग्राम प्रधान या नगर पालिका अथवा नगर पंचायतों आदि में जिन वार्डों में महिलाओं का आरक्षण होता है, वहां ज्यादातर चुनी हुई महिलायें घर में घुसी रहती हैं और उनके पति या अन्य सदस्य सब कुछ काम करते हैं। महिलाओं से तो सिर्फ हस्ताक्षर कराये जाते हैं। अब तो पुलिस प्रशासन छोड़िये, सेना में भी महिलाओं को भर्ती का फरमान अदालत दे रही है। क्या इनकी शारीरिक संरचना ऐसी है जो युद्ध भूमि में दुश्मन को परास्त कर सकेंगी। महारानी लक्ष्मीबाई आदि वीरांगनाओं के कुछ अपवादों को छोड़कर हमें सच्चाई को स्वीकारना होगा।
सबसे ज्यादा विचारणीय बात यह भी है कि रज पीरियड में महिलाओं को कितनी परेशानी का सामना करना पड़ता होगा? घर भी देखना और कार्यालय अथवा अन्य प्रतिष्ठानों में भी नौकरी करने जाना। क्या सरकार मातृत्व अवकाश के साथ-साथ रजस्वला अवकाश भी देगी? सच बात यह है कि बेचारी इन अबलाओं के साथ कितना अन्याय हो रहा है इसकी किसी को परवाह नहीं, बस वोटों का लोभ इनके लिये दिखावटी सहानुभूति दर्शा रहा है।
अंत में यह भी कहना जरूरी है कि पहले इनके दहेज के लिये उत्पीड़न और फिर बाद में इस प्रकार से इनका शोषण यादि बच्चा पैदा करो, उसे पालो और घर गृहस्थी संभालो तथा ऊपर से कमाई और करके लाओ। हालांकि कुछ लोग इस बात से सहमत नहीं होंगे तथा दकियानूसी सोच बतायेंगे और तरह-तरह से कुतर्क करेंगे।