डॉ. सुमित्रा अग्रवाल
कोलकाता। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को भगवन गणेश के श्राप से चन्द्रमा देखने वाले पर चोरी का आरोप लगता है। अब गलती से किसी ने अगर चन्द्रमा को देख लिया है चौथ के दिन तो निचे दिए हुए दोनों उपाय करे –
विष्णु पुराण में दिए हुए निम्न मन्त्र का का पाठ करे –
सिंह: प्रसेनमवधीत्सिंहो जाम्बवता हतः ।
क मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ॥
निचे दिए गए कथा का पाठ करे –
द्वापर युग में द्वारकापुरी में सत्रजीत नाम का एक यदुवंशी रहता था। सत्रजीत के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वह सूर्य भगवान के परम भक्त थे और उनकी आराधना से प्रसन्न होकर सूर्य देव ने उन्हें समंतक नाम की एक मणि दी थी। इस मणि की विशेषता थी कि जिस प्रकार सूर्य प्रकाशवान है, उसी प्रकार यह मणि भी बहुत ज्यादा कांति वान थी। इस मणि की और भी एक विशेषता यह थी कि यह प्रतिदिन आठ बार सोना देती थी तथा इसके प्रभाव से संपूर्ण राष्ट्र में रोग ,अनावृष्टि, सर्प, अग्नि, चोर तथा दुर्भिक्ष आदि का भय नहीं रहता था। आगे की कथा ऐसी है कि १ दिन सत्राजीत उस मणि को धारण करके राजा उग्रसेन की सभा में गए थे। उस समय मणी की कांति से सत्राजीत दूसरे सूर्य के समान दिखाई दे रहे थे।
भगवान श्री कृष्ण की इच्छा थी कि यदि अपार कांती वाला समंतक मणि राजा उग्रसेन के पास होता तो सारे राष्ट्रीय का कल्याण हो जाता। इधर सत्रजीत को यह मालूम हो गया कि श्रीकृष्ण उनकी मणि को लेना चाहते हैं, अतः उन्होंने उस मणि को अपने भाई प्रसेन को दे दी। एक दिन की घटना है जब प्रसेन समंतक मणि को अपने गले में बांध, घोड़े पर सवार होकर वन में शिकार करने के लिए निकल गए। प्रसेन एक सिंह द्वारा मार दिए गए। प्रसेन के ना लौटने पर सत्राजीत ने ये अनुमान लगाया की श्री कृष्णा ने मणि के लिए उनके भाई को मार गिराया होगा । यादवों में कानाफूसी होने लगी कि श्री कृष्ण जी ने मणि के लिए प्रसेन को मार दिया। जंगल में जामवंत ने जब एक शेर के मुंह में मणि को दबाए हुए देखा, तो उन्होंने शेर को मार गिराया और मणि को ले लिए और वह मणि वे अपने बच्चे को खेलने के लिए दे दिए। द्वारका में श्री कृष्ण भगवान के बारे में नाना प्रकार की बातें होने लगी समन्तक मणि को लेकर और यह खबर श्री कृष्ण तक भी पहुंच गई। वे राजा उग्रसेन से मिलने गए और परामर्श किए कि मुझे क्या करना चाहिए। परामर्श से यह निष्कर्ष निकला कि जंगल में जाकर प्रसेन को खोजना चाहिए।
श्री कृष्ण भगवान कुछ साथियों के साथ प्रसेन के घोड़े के खुरों के चिन्हों को देखते हुए वन में पहुंच गए। वहां उन्होंने घोड़े और प्रसेन को मृत पड़ा हुआ पाया तथा उनके पास सिंह के चरण चीन भी दिखे। उन चिन्हों का अनुशरण करते हुए वे आगे बढ़ते चले गए, तो उन्हें वहां पर सिंह भी मृत मिला। वहां से जामवंत के पैरों के निशान दिखने लगे। तब इन्होंने जामवंत की गुफा की तरफ रुख किया। श्री कृष्ण जी का अपने साथियो से यह कहना थे कि अब यह तो स्पष्ट हो चुका है कि घोड़े सहित प्रसेन, सिंह द्वारा ही मारा गया था परंतु सिंह से भी बलवान कोई तो है जिसने उस सिंह को मारा है और वह गुफा में है। मैं अपने पर लगे इस मिथ्या आरोप को मिटाना चाहता हूं। इसलिए मैं गुफा में प्रवेश करता हूं और समन्तक मणि लेकर आने की चेष्टा करता हूं। यह कहकर श्री कृष्ण गुफा के अंदर चले जाते हैं। १२ दिनों तक श्री कृष्ण भगवान गुफा से बाहर नहीं आते है। उनके साथ गए लोगो को लगा की कृष्णा भगवन भी मारे गए है और ऐसा सोच कर वे वापस आ गए। जामवंत के साथ २१ दिनों तक भगवन श्री कृष्णा का घोर संग्राम होता रहा।
अंत में जामवंत ने भगवान को पहचान कर उनकी प्रार्थना करते हुए कहा कि, हे प्रभु ,आप ही मेरे स्वामी राम हैं और द्वापर में आपने मुझे इस रूप में दर्शन दिया है, आपको कोटि-कोटि प्रणाम है। हे प्रभु मैं आपको पहचान नहीं पाया इसके लिए मुझे क्षमा करें और आप मेरी पुत्री जामवंती से विवाह करें और समन्तक मणि उपहार के रूप में ग्रहण करे । श्री कृष्ण भगवान ने जामवंती से विवाह किया और समन्तक मणि को लिया। श्री कृष्णा समन्तक मणि और जामवंती दोनों को लेकर द्वारका पहुंचे। श्रीकृष्ण को आया देखकर संपूर्ण द्वारका में प्रसन्नता की लहर दौड़ पड़ी। श्री कृष्ण यादवो से भरी हुई सभा में मणी को सत्राजीत को वापस देते हैं। सत्राजीत ने प्रायश्चित स्वरूप अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्री कृष्ण भगवान से कर दिया। गणेश चतुर्थी के दिन जो भी वक्ती चाँद देखता है उसे इस आख्यान को पढ़ने से या सुनने से भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के चंद्र दर्शन के दोष से मुक्ति मिलती है।