Wednesday, October 30, 2024
Homeविजय गुप्ता की कलम सेजब पश्चिम बंगाल सचिवालय में मुझे पागल का खिताब मिला

जब पश्चिम बंगाल सचिवालय में मुझे पागल का खिताब मिला

मथुरा। बात लगभग पांच दशक पुरानीं है। उस समय पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु थे। मैं मुख्यमंत्री से मिलने चौरंगी स्थित राइटर्स बिल्डिंग (सचिवालय) जा पहुंचा। मैंने वहां के अधिकारियों से कहा कि मुझे ज्योति बसु से मिलना है। वे बोले कि तुम कौन हो, कहां से आऐ हो, क्या काम है? इस पर मैंने अपना नाम बता कर कहा कि मैं मथुरा से आया हूं तथा बंगाल में गौ हत्या बंद होनी चाहिए इस संदर्भ में उनसे अपनी बात कहना चाहता हूं।
     उन लोगों ने कहा कि भाई मुख्यमंत्री से मिलना कोई हंसी मजाक नहीं होता है और फिर तुम तो अभी बच्चे हो, क्यों इस चक्कर में पड़ते हो। गौ हत्या बंद होना कोई हंसी खेल थोड़े ही है। हास परिहास करते हुए मुझे समझाया कि जाओ अपने घर और भूल जाओ मुख्यमंत्री से मिलना और बंगाल में गौ हत्या का बंद होना। चूंकि मेरे ऊपर तो ज्योति बसु से मिलने का जुनून सवार था अतः मैंने उनसे जिद की कि मुझे सिर्फ दो मिनट को मिलवा दो मैं जो प्रार्थना पत्र लेकर आया हूं उसे देकर चला जाऊंगा।
     इस पर उनमें से एक अधिकारी बोला कि सुबह से शाम तक तुम्हारे जैसे पागल यहां रोजाना आते हैं और कहते हैं कि हमें ज्योति बसु से मिलना है। यदि ज्योति बसु तुम लोगों से ही मिलते रहेंगे तो फिर राजकाज कैसे चलाएंगे? खैर मैं उस व्यक्ति की बात सुनकर बुझे मन से वापस लौट आया। इसके बाद मैंने पता किया कि ज्योति बसु रहते कहां है। मुझे पता चला कि ज्योति बसु बालीगंज स्थित हिंदुस्तान पार्क में रहते हैं। संयोग की बात यह भी थी कि मेरी बड़ी बहन भी बालीगंज स्थित लेक झील के निकट “सरोवर” बिल्डिंग की सबसे ऊपर वाली दसवीं मंजिल पर रहतीं थीं। वहां से हिंदुस्तान पार्क बमुश्किल दो-तीन किलोमीटर ही होगा।
     दूसरे दिन सुबह सुबह यानीं सूर्योदय के आस पास में ज्योति बसु के घर जा पहुंचा, ज्योति बसु का एक साधारण सा दो मंजिला मकान था। वहां पर न कोई पुलिस का पहरा, न सुरक्षा का कोई बंदोबस्त और ना ही गाड़ियों का जमघट मैं यह देखकर बड़ा आश्चर्य चकित रह गया। घर पर इक्का-दुक्का लोग दरवाजे के पास बैठे थे मैंने उनसे कहा कि मैं मथुरा से आया हूं और मुझे मुख्यमंत्री जी से मिलना है उन्होंने कहा कि क्यों? इस पर मैंने उन्हें अपनीं बात बताई। उन लोगों ने कहा कि ऊपर पी.ए. साहब से बात करो। मैं सीढ़ियां चढ़कर ऊपर गया तो वहां ज्योति बसु के कमरे के आगे एक अति वृद्ध सज्जन बैठे थे बड़ी सी मेज उनके आगे लगी थी तथा उस पर कागज, पत्रों व फाइलों का ढेर लगा था। उनकी उम्र शायद 75-80 के मध्य होगी।
     उन्होंने चश्मे में से मेरी ओर नजर डाली तथा बोले कि “खोका बाबू की काज आछै” यानीं लड़के क्या काम है? मैंने उन्हें सारी बात बताई, इस पर उन्होंने कहा कि बात तो तुम्हारी सही है। गाय तो हमारी मां है और उसकी हत्या तो नहीं होनी चाहिए किंतु बंगाल में  गौहत्या को रोकना असंभव है। अतः ज्योति बसु साहब से तुम्हारा मिलना बेकार है। मैंने कहा कि मैं इतनीं दूर से कितने अरमानों को लेकर आया हूं जरा मुझे एक मिनट को मिलवा तो दो। इस पर उन्होंने बड़े धैर्य और अपनत्व से समझाया कि बेटा इस समय शेसन (विधानसभा सत्र) चल रहा है। बसु बाबू बहुत व्यस्त हैं। मैं नहीं मिलवा सकता, बात को समझो। हां उन्होंने एक भरोसा मुझे दिया कि मैं बाद में मौका मिलते ही तुम्हारे प्रार्थना पत्र को उनके सामने जरूर रख दूंगा।
     हालांकि मेरी स्थिति ठीक वैसी थी जैसे सांप सीढ़ी के खेल में गोटी सौ वे नंबर के निकट पहुंचकर सांप द्वारा डसे जाने पर नीचे पांच सात नंबर पर ला पटकी हो या फिर क्रिकेट के खेल में शतक के निकट पहुंचकर खिलाड़ी आउट हो जाय। बावजूद इसके मुझे अधिक निराशा नहीं हुई क्योंकि मुझे इस बात की तसल्ली थी कि मैंने अपना प्रयास पूरा किया और सफलता भी उसमें बहुत कुछ मिली यानीं कि मुख्यमंत्री न सही उनके पी.ए. तक पहुंच कर अपनी भावना व्यक्त कर ली तथा पी.ए. के द्वारा यह आश्वासन मिलना कि मैं एक बार जरूर इस प्रार्थना पत्र को ज्योति बसु के सामने रखूंगा तथा उन्हें बताऊंगा कि मथुरा से एक लड़का आया था और वह दे गया है।
     मुझे पक्का विश्वास है कि उनके पी.ए. ने अपना वादा पूरा जरूर किया होगा क्योंकि वह अत्यंत सज्जन और धार्मिक व्यक्ति होने के साथ गौभक्त भी थे। इस पूरे घटनाक्रम के बाद मुझे थोड़ा सा मलाल तो हुआ किन्तु संतोष भी बहुत मिला। मान लो अगर मैं ज्योति बसु से मिल भी लेता तो कौन से वे अगले दिन से गौहत्या को प्रतिबंधित कर देते? वैसे देखा जाय तो यह अच्छा ही हुआ कि मैं ज्योति बसु से नहीं मिल पाया क्योंकि ज्योति बाबू शुरू से ही बड़े गुस्सैल और मारधाड़ वाले व्यक्ति रहे हैं और मैं खुद भी इसी बिरादरी का हूं। हो सकता है उनके सामने भी मेरा मुंह फटपना सर पर सवार हो जाता तो शायद दूसरी मंजिल से सीढ़ियों के द्वारा नीचे आने के बजाय हवाई मार्ग से यह रास्ता तय करा दिया जाता और मैं भूल जाता सारी नेतागीरी तथा छटी का दूध याद करने के अलावा और कोई चारा मेरे पास न होता।
     एक बात तो माननी पड़ेगी कि ज्योति बाबू में भले ही लाख अवगुण हों किंतु उनकी ईमानदारी और सादगी हमेशा से बेमिसाल रही यह बात मैं बचपन से सुनता भी आया और प्रत्यक्ष देख भी लिया। यही कारण है कि ज्योति बसु न सिर्फ खुद कई दशक तक लगातार मुख्यमंत्री रहे तथा जब उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा तब उन्होंने अपने मोहरे बुद्धदेव भट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बनाया। बुद्धदेव उन्हीं के निर्देशन और मार्गदर्शन में राजकाज चलाते थे। कहने का मतलब है कि बुद्धदेव के कार्यकाल में ज्योति बसु सुपर मुख्यमंत्री की भूमिका में रहते थे। यदि पुराने पीरियड को भी जोड़ा जाय यानीं कि जब अजय मुखर्जी मुख्यमंत्री और ज्योति बसु उप मुख्यमंत्री थे तब भी ज्योति बसु अजय मुखर्जी पर हावी रहते अर्थात जो भी कुछ महत्वपूर्ण निर्णय होते वे ज्योति बाबू की सहमति से होते भले ही राजी राजी या गैर राजी। यदि इस कार्यकाल को भी जोड़ा जाय तो ज्योति बसु का डंका बंगाल पर लगभग आधी शताब्दी तक बजा।
     अब मैं अपने असली मुद्दे पर आता हूं। मुझे कलकत्ता में ज्योति बसु से मिलने की तीव्र अभिलाषा का असली कारण यह था कि मेरे कलकत्ता जाने के कुछ समय पूर्व मथुरा में एक विशाल गौ रक्षा अभियान चला। इस अभियान की अगुवाई स्व. श्री राधा कृष्ण बजाज तथा आगरा के पूर्व सांसद तथा आचार्य विनोबा भावे के निकटतम शिष्य सर्वोदयी स्व. श्री बाबूलाल मीतल ने की थी। इस अभियान में पवनार आश्रम की कई बहनें व अनेक सर्वोदय कार्यकर्ता भी महीनों तक मथुरा में रहे। देवता समान महान पत्रकार स्व. श्री कांतिचंद्र अग्रवाल जो अमर उजाला के प्रतिनिधि थे, के निर्देशानुसार मैंने भी आंदोलन में यथासंभव अपनी सहभागिता निभाई।
     पूर्व सांसद बाबूलाल मीतल मुझसे बड़े प्रसन्न रहते थे तथा कभी कभी हमारे घर भी आ जाते थे। हमारे पिताजी के पास आकर बैठना उन्हें बहुत अच्छा लगता था। सर्वोदय लोगों की जब यहां जनसभाएं होती थी तब उनमें दिए गये भाषणों से मुझे पता चला कि देश के सबसे बड़े कसाई खाने मटिया बुरुज और टैंगरा कलकत्ता में हैं। वहां पर प्रतिदिन सैकड़ों गाय कटती हैं तथा पूरे देश में बंगाल गौ हत्या का सबसे बड़ा केंद्र है। मैं तो वैसे भी चार छः महीने में कलकत्ता जाता रहता था। अतः मैंने पिताजी की आज्ञा लेकर बड़ी बहन के पास कलकत्ता जाने का प्रोग्राम बना लिया।
     कलकत्ता पहुंचकर मैं शहर से बहुत दूर मटिया बुरुज और टैंगरा कसाई खाने गया वहां मृत गायों को जगह-जगह दुकानों पर पूंछ को रस्सी के द्वारा बांधकर लटका रखा था जैसे यहां कुछ जगह बकरे लटके रहते हैं। यह सब देखकर मेरा मन बड़ा द्रवित हुआ। फिर मैं कसाई खानों के मुख्य द्वार पर पहुंचा जहां कसाई लोग पत्थरों पर छुरों को धार दे रहे थे। इस सबको देख कर तो मेरा मन अति विचलित हो उठा तथा आगे कदम नहीं बढ़ा पाया और घर लौट आया सुबह का निकला लौटते लौटते शाम हो गई। दूसरे दिन मैं ज्योति बसु से मिलने सचिवालय गया और वहां जो कुछ हुआ वह ऊपर लिख चुका हूं तथा तीसरे दिन ज्योति बसु के घर पहुंचा इस दृष्टांत को भी बता चुका हूं।
     उन्हीं दिनों मुझे सर्वोदय लोगों से पता चला कि क्रोम व काफ लेदर के पीछे कितनीं क्रूरता छिपी होती है तथा चमड़े का प्रयोग करना पशु क्रूरता करने में सहायक होता है। तभी से मैंने चमड़े के जूते चप्पल व हर सामान का त्याग कर दिया।
     मेरा सभी से अनुरोध है कि जहां तक हो सके चमड़ा व अन्य ऐसे हर सामान से बचें जिसमें पशु क्रूरता छिपी हो। गाय ही नहीं प्रत्येक प्राणी की रक्षा हेतु हम सभी को हमेशा प्रयासरत रहकर अपना मानवीय धर्म निभाना चाहिए।
दया धरम का मूल है पाप मूल अभिमान..
तुलसी दया न छोड़िए जब लग घट में प्राण….विजय गुप्ता की कलम से

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